३८८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास। सुखकामानि भूनानि यो दण्डेन विहिसति । अत्तनो मुखमेसानो (इच्छन् ) पेच्य तो न लमते सुखम् ॥ " (अपने समान ही) सुख की इच्छा करनेवाले दूसरे प्राणियों की लो अपने (अत्तनो) सुख के लिये दण्ड से हिंसा करता है, उसे मरने पर (पैच्यचैत्य) सुख नहीं मिलता " (धम्मपद १३.)। आत्मा के अस्तित्व को न मानने पर भी आत्मौपम्य की यह माषा जब कि बौद्ध ग्रन्यों में पाई जाती है, तब यह प्रगट ही है कि यदि ग्रन्त्यकारों ने ये विचार वैदिक धर्मग्रन्थों से लिये हैं। अस्तु, इसका अधिक विचार आगे चल कर करेंगे। अपर के विवेचन से देख पड़ेगा कि, जिसकी "सर्वभूतस्यमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि " ऐसी स्थिति हो गई, वह और से वर्तन में आत्मौपम्य-बुद्धि से ही सदैव काम लिया करता है और हम प्राचीन काल से समझते चले आ रहे हैं कि ऐसे बर्ताव का यही एक मुख्य नीतितत्व है। इसे कोई भी स्वीकार कर लेगा कि समाज में मनुष्यों के पारस्परिक व्यवहार का निर्णय करने के लिये प्रात्मौपम्य-बुद्धि का यह सूत्र, " अधिकांश लोगों के अधिक हित' घाले आधिभौतिक तत्व की अपेक्षा भधिक निदोप, निस्सन्दिग्ध, व्यापक, स्वस, और विलकुन अपहों की भी समझ में जल्दी आ जाने योग्य है। धर्म-अधर्मशास्त्र के इस रहस्य (एप संक्षेपतो धर्मः) अथवा मूलतत्व की अध्यात्मदृष्टया जैसी उपपत्ति लगती है, वैली कम के वाही परिणाम पर नजर देनवाले प्राधिनतिक बाद से नहीं लगती। और इसी से धर्म-अधर्मशान के इस प्रधान नियम को, उन पश्चिमी पारोस्तों के ग्रन्थों में प्रायः प्रमुख स्थान नहीं दिया जाता कि जो प्राधि. भौतिक दृष्टि से कर्मयोग का विचार करते हैं। और तो क्या, श्रात्मौपम्य दृष्टि के सूत्रको ताक में रख कर, वै समाजवन्धन की उपपत्ति " अधिकांश लोगों के अधिक सुख" प्रमृति केवल दृश्य तव से ही लगाने का प्रयत्न क्रिया करते हैं। पन्तु उपनिषदों में, मनुस्मृति में, गीता में, महाभारत के अन्यान्य प्रकरणों में और केवल दोद धर्म में ही नहीं, प्रत्युत अन्यान्य देशों एवं धर्मों में भी, अात्मौपम्य के इस सरल नीतितत्त्व को ही सर्वत्र अग्रस्थान दिया हुआ पाया जाता है। यहूदी और क्रिश्चियन धर्मपुस्तकों में जो यह आज्ञा है कि "तू अपने पड़ोसियों पर अपने ही समान प्रीति कर "(लेवि. १८. १५; मैल्यू. २२.३६), वह इसी नियम का रूपान्तर है। ईसाई लोग इसे लोने का अर्थात् सोने सरीखा मूल्यवान् नियम कहते हैं परन्तु प्रात्मश्य की उपपत्ति उनके धर्म में नहीं है। ईसा का यह उपदेश भी प्रात्मी- पम्य-सूत्र का एक भाग है कि लोगों से तुम अपने साय जैसा यात्र कराना पसन्द मूत्र शब्द की व्याख्या इस प्रकार का जानी है-"मस्याक्षरमसन्दिग्ध मरवादियो- मुखन् । अत्तोममनषधं च सूत्र सूत्रविदो विदुः॥" गाने के तुमीत के लिये किती मी मल में जिन अनर्थक मारों का प्रयोग कर यिा जाता है, उन्हें स्तोभार करते है। अनर्थक मक्षर नहीं होते, इसी से पत यग में यह 'अस्वोम' पद पाया है। .
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४२७
दिखावट