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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४३७

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३६८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । में पहुँच हुए कर्मयोगी प्राणिमात्र में आत्मा की एकता को पहचान कर यद्यपि सभी के साथ निर्वरता का व्यवहार किया करें, तथापि अनासक-बुद्धि से पात्रता अपात्रता का सार-प्रसार विचार करके स्वधर्मानुसार प्राप्त हुए कर्म करने में वे कभी नहीं चूकते; और कर्मयोग कहता है कि इस रीति से किये हुए कर्म कता की साम्य घुद्धि में कुछ भी न्यूनता नहीं आने देते। गीताधर्म प्रतिपादित कर्मयोग के इस तत्व को मान लेने पर कुलाभिमान और देशाभिमान आदि कर्तव्य-धर्मों की मी कर्मयोगशास्त्र के अनुसार योग्य उपपत्ति लगाई जा सकती है। यद्यपि यह अन्तिम सिद्धान्त है कि समय मानव जाति का-प्राणिमात्र का जिससे हित होता हो वही धर्म है, तथापि परमावधि की इस स्थिति को प्राप्त करने के लिये कुलामिमान, धर्माभिमान और देशाभिमान प्रादि चढ़ती हुई सीढ़ियों की भावश्यकवा तो कमी भी नष्ट होने की नहीं। निर्गुण ब्रह्म की प्राति के लिये जिस प्रकार सगुणोपासना भावश्यक है, उसी प्रकार 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की ऐसी बुद्धि पाने के लिये कुमा- मिमान, जात्यभिमान और देशाभिमान आदि की आवश्यकता है। एवं समाज की प्रत्येक पीढ़ी इसी जीन से ऊपर चढ़ती है, इस कारण इसी जीने को सदैव ही स्थिर रखना पड़ता है। ऐसे ही जब अपने आसपास के लोग अथवा अन्य राष्ट्र नीचे की सीढ़ी पर हो, तव यदि कोई एक-आध मनुष्य अथवा कोई राष्ट्र चाहे कि मैं अकेला ही ऊपर की सीढ़ी पर बना रहूँ, तो यह कदापि हो नहीं सकता। क्योंकि उपर कहा ही जा चुका है कि परस्पर व्यवहार में "जैसे को तैसा न्याय से उपर ऊपर की श्रेणीवालों को नीचे नीचे की श्रेणीवाले लोगों के अन्याय का प्रतिकार करना विशेष प्रसङ्ग पर आवश्यक रहता है। इसमें कोई शक्षा नहीं, कि सुधरते-सुधरते जगत् के सभी मनुष्यों की स्थिति एक दिन ऐसी ज़रूर हो जावेगी कि वे प्राणिमात्र में आत्मा की एकता को पहचानने लगे; अन्ततः मनुष्य मात्र को ऐसी स्थिति प्राप्त कर लेने की आशा रखना कुछ अनुचित भी नहीं है। परन्तु आत्मोन्नति की परमा- वधि की यह स्थिति जब तक सब को प्राप्त हो नहीं गई है, तब तक अन्यान्य राष्ट्र अथवा समाजों की स्थिति पर ध्यान दे कर साधु पुरुष देशाभिमान आदि धर्मों का ही ऐसा उपदेश देते रहे कि जो अपने-अपने समाजों को उन-उन समयों में श्रेयस्कर हो। इसके अतिरिक्त, इस दूसरी बात पर भी ध्यान देना चाहिये कि मलिल दर मजिल तैयारी करके इमारत बन जाने पर जिस प्रकार नीचे के हिस्से निकाल दाने नहीं जा सकते; अथवा जिस प्रकार तलवार हाथ में आ जाने से कुदाली की, या सूर्य होने से अग्नि की, आवश्यकता बनी ही रहती है। उसी प्रकार सर्वभूतहित की अन्तिम सीमा पर पहुंच जाने पर भी न केवल देशाभिमान की, वरन् कुलाभिमान की भी आवश्यकता बनी ही रहती है। क्योंकि समाज-सुधार की दृष्टि से देखें तो, कुलाभिमान जो विशेष काम करता है वह निरे देशाभिमान से नहीं होता; और देशाभिमान का कार्य निरी सर्वभूतात्मैश्य-दृष्टि से सिद्ध नहीं होता। अयां समाज की पूर्ण अवस्था में भी साम्यबुद्धि के ही समान, देशाभिमान औरकुलाभिमान मादि