पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४३८

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? सिद्धावस्था और व्यवहार। धर्मों की भी सदय ज़रूरत रहती ही है। किन्तु केवल अपने ही देश के अभिमान को परम साध्य मान लेने से, जैसे एक राष्ट्र अपने लाभ के लिये दूसरे राष्ट्र का मन- माना नुक्सान करने के लिये तैयार रहता है, वैसी यात सर्वभूतहित को परमसाध्य मानने से नहीं होती। कुलाभिमान, देशाभिमान और अन्त में, पूरी मनुष्यजाति के हित में यदि विरोध आने लगे तो साम्यवृद्धि से परिपूर्ण नीतिधर्म का, यह महत्वपूर्ण और विशेष कथन है कि उन्य श्रेणी के धमों की सिद्धि के लिये निम्न श्रेणी के धर्मा को छोड़ दे। विदुर ने धृतराष्ट्र को उपदेश करते हुए कहा है कि युद्ध में कुल का क्षय हो जायेगा, अतः दुर्योधन की टेक रखने के लिये पाण्डवों को राज्य का भाग न देने की अपेक्षा, यदि दुर्योधन न सुने तो उसे (लड़का भले ही हो) अकेले को छोड़ देना ही उचित है, और इसके समर्थन में यह श्लोक कहा ई- स्वजेदेकं कुलस्यायें प्रामस्याथ कुलं त्यजेत् । ग्राम जनपदत्याय आत्माध पृथिवी त्यजेत् ॥ "कुल के (बचाव के लिये एक व्यक्ति को, गाँव के लिये फुल को और पूरे लोकसमूह के लिये गाँव को, एवं आत्मा के लिये पृथ्वी को छोड़ दे" (ममा. मादि. ११५. ३६नमा. ६.११)। इस श्लोक के पहले और तीसरे चरण का तात्पर्य यही है कि जिसका उलेख ऊपर किया गया है और चौथे चरण में प्रात्म- रक्षा का तत्व बतलाया गया है । 'आत्म' शब्द सामान्य सर्वनाम है, इससे यह मात्मरक्षा का ताव जैसे एक व्यक्ति को उपयुक्त होता है, वैसे ही एकत्रित लोक- समूह को, जाति को देश को अथवा राष्ट्र को भी उपयुक्त होता है और कुल के लिये एक पुरुष को, ग्राम के लिये कुल को, एवं देश के लिये प्राम को छोड़ देने की क्रमशः चढ़ती दुई इस प्राचीन प्रणाली पर जब हम ध्यान देते हैं तय स्पष्ट देख पड़ता है कि माम' शब्द का अर्थ इन सब की अपेक्षा इस स्थगा पर अधिक महत्व का है। फिर भी कुछ मतलबी या शास्त्र न जाननेवाले लोग, इस चरण का कभी कभी विपरीत अर्थात् निरा स्वार्थप्रधान अर्य किया करते हैं। अतएव यहाँ कह देना चाहिये कि प्रात्मरक्षा का यह तत्व आपमतलयापन का नहीं है। क्योंकि, जिन शास्त्रकारों ने निरे स्वार्थसाधु चापांक-पन्य को राक्षसी यतलाया है (देखो गी. श्र. १६), सम्भव नहीं है कि वे ही, स्वार्थ के लिये किसी से भी जगत कोडवाने के लिये कहैं । उपरे के श्लोक में अर्थे ' शब्द का अर्थ सिर्फ स्वार्थप्रधान नहीं है, किन्तु "सकर आने पर उसके निवारणार्थ " ऐसा करना चाहिये और कोशकारों ने भी यही अर्थ किया है। आपमतलबीपन और भामरता में बड़ा भारी अन्तर है। कामोपभोग की इच्छा अथवा लोभ से अपना स्वार्थ साधन के लिये दुनिया का नुकसान करना आपमतलबीपन है। यह अमानुपी और निन्य है। उक्त सौक के प्रथम तीन चरणों में कहा है कि एक के हित की अपेक्षा अनेकों के हित पर सदैव ध्यान देना चाहिये । तथापि प्राणिमात्र में एक ही प्रात्मा रहने के कारण, प्रत्येक मनुष्य को इस जगत् में सुख से रहने का एक ही सानैसर्गिक अधिकार है और इस