पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४३९

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४००. गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । सर्वमान्य नहर के नैसर्गिक स्वत्व की ओर दुर्लक्ष्य कर जगत के किसी भी एक व्यक्ति जी वा समाज की हानि करने का अधिकार दूसरे किसी व्यक्ति या समाज को नीति की दृष्टि से नापि प्रात नहीं हो सकता-फिर चाईवह समाज बल और संख्या में कितना ही वहा-चढ़ा क्यों न हो, अथवा उसके पास छीना-झपटी करने के साथन दूसरों से अधिक क्यों न हाँ। यदि कोई इस त्रुक्ति का अवलम्वन को कि पुक की अपेक्षा, अथवा थोड़ों की अपेक्षा बहुतों का हित अधिक योग्यता का है, और इल युक्ति से, संख्या में अधिक बढ़े हुए समाज के स्वार्थी यांच का समर्थन करे, तो यह युक्तिवाद फेवल रानसी समझा जावेगा । इस प्रकार दूसरे लोग यदि अन्याय से वतने लगें तो वहुतेरों के तो क्या, सारी पृथ्वी के हित की अपेक्षा नी आत्म- रक्षा अयात अपने बचावका नैतिक इक और भी अधिकलबल होजाता है। यहीदक चौथे चरण का भावार्थ है। चौर पहले तीन चरणों में जिस अयं का वर्णन है, उसी के लिये महत्वपूर्ण अपवाद के नाते से इसे टनके साथ ही वतला दिया है। इसके सिवा यह भी देखना चाहिये कि यदि हम स्वयं जीवित रहेंगे तो लोक- कल्याण भी कर सकेंगे। घतमव लोकहित की दृष्टि से विचार करें तो भी विवामित्र के लमान यही कहना पड़ता है कि, "जीवन् धर्ममवाप्नुयात्-जियगे तो धर्म भी करेंगे; अथवा कालिदास के अनुसार यही कहना पड़ता है कि "शरीरमाय खनु धर्मसाधनस् "(न्मा. ५.३३)-शरीर ही सब धर्मों का नूल साधन है या मनु के कथनानुसार कहना पड़ता है कि "शात्मानं सततं रक्षेत्" स्वयं अपनी रक्षा सदा सर्वदा करनी चाहिये । यद्यपि आत्मरक्षा का इक सारे जगत के हित की अपेक्षा इस प्रकार श्रेष्ठ है, त्यापि दूसरे प्रकरण में कह आये है कि कुछ अच- सरों पर कुन्न के लिये देश के लिये, धर्म के लिये भयवा परोपकार के लिये स्वयं अपनी ही इच्छा से साधु लोग अपनी जान पर खेल जाते हैं। टक शोक के पहले तीन चरणों में यही तन्न वर्णित है। ऐले प्रसङ्ग पर मनुष्य आत्मरक्षा के अपने श्रेष्ठ स्वत्व पर भी स्वेच्छा से पानी फेर दिया करता है, अतः ऐसे काम की नैतिक योग्यता मी सब से श्रेष्ट समझी जाती है। तथापि अचूक यह निश्चय कर देने के लिये, कि ऐसे अवसर कम उत्पन्न होते हैं, निरा पाण्डित्य या तर्कशक्ति पूर्ण समय नहीं है। इसलिये, धृतराष्ट्र के उल्लिखित कथानक से यह वात प्रगट होती है कि विचार करनेवाले मनुष्य का अन्तःकरण पहले से ही शुद्ध और सम रहना चाहिये । महाभारत में ही कहा है कि मृतराष्ट्र की बुद्धि इतनी मन्द न थी कि वे विदुर के प्रदेश को समझ न सकें, परन्तु पुत्र प्रेम उनकी बुद्धि को सन होने कहा देता था। अबेर को जिस प्रकार लाख रुपये की कभी भी कमी नहीं पड़ती, उसी प्रकार जिसकी शुद्धि एक बार लम हो चुकी उसे कुलामक्य, देशात्मैक्य या धना- स्मैक्य आदि निम्नश्रेणी की एकताओं का कभी टोटा पड़ता ही नहीं है। ब्रह्मानक्य में इन सब ज्ञ अन्तमाव हो जाता है। फिर देशधर्म, कुल मादि संकुचित्त धना का अथवा सर्वभूतहित के व्यापक धर्म का-नयात् इनमें से जिस-तिसन्नी स्थिति के