भक्तिमार्म । ४०६ देते हैं ! यदि इसी प्रकार कोई पूछे कि “ ग्रह कैसा है" तो यह उत्तर देने में क्या हानि है कि वह " निर्गुण " है? वह सचमुच ही निगुंगा है या नहीं, इस बात की पूरी जाँच कर उसके साधक-बाधक प्रमागों की मीमांसा करने के लिये सामान्य लोगों में युदि की तीव्रता भले ही न हो; परन्तु श्रद्धा या विश्वास कुछ ऐसा मनोधर्म नहीं है. जो महाबुद्धिमान पुरुषों में ही पाया जाय। अज्ञजनों में भी श्रद्धा की कुछ न्यूनता नहीं होती। और, जव कि श्रद्धा से ही वे लोग अपने सैकड़ों सांसा- रिक व्यवहार किया करते हैं, तो उसी श्रद्धा से यदि वै ब्रह्म को निर्गुण मान लेवे तो कोई प्रत्यवाय नहीं देख पड़ता । मोक्ष-धर्म का इतिहास पढ़ने से मालूम होगा, कि जब ज्ञानी पुरुषों ने ब्रह्मस्वरूप की मीमांसा कर उसे निर्गुण बतलाया, उसके पहले ही मनुष्य ने केवल अपनी श्रद्धा से यह जान लिया था, कि सृष्टि की जड़ में सृष्टि के नाशवान् और अनित्य पदार्थों से भिन्न या विलक्षण कोई एक तत्व है, जो अना- छत, अमृत, स्वतन्त्र सर्वशक्तिमान्, सर्वत्र और सर्वव्यापी है, और, मनुष्य उसी समय से उस तत्व की उपासना किसी न किसी रूप में करता चला आया है। यह सच है कि वह उस समय इस ज्ञान की उपपत्ति वतला नहीं सकता था; परना प्राधिभौतिकशास्त्र में भी यही क्रम देख पड़ता है कि पहले अनुभव होता है और पश्चात् उसकी उपपत्ति बतलाई जाती है । उदाहरणार्थ, भास्कराचार्य को पृथ्वी के (अथवा अन्त में न्यूटन को सारे विश्व के ) गुरुत्वाकर्षण की कल्पना सूझने के हिले ही यह पात अनादि काल से सब लोगों को मालूम थी, कि पेड़ से गिरा हुआ फल नीचे पृथ्वी पर गिर पड़ता है। अध्यात्मशास्त्र को भी यही नियम उपयुक्त है। श्रद्धा से प्राप्त हुए ज्ञान की जाँच करना और उसकी उपपत्ति की खोज करना बुद्धि का काम है सही; परन्तु सब प्रकार योग्य उपपत्ति के न मिलने से ही यह नहीं कहा जा सकता कि श्रद्धा से प्राप्त होनेवाला ज्ञान केवल भ्रम है। यदि सिर्फ इतना ही जान लेने से हमारा काम चल जाय कि ब्रह्म निर्गुगा है, तो इसमें सन्देह नहीं कि यह काम उपयुक्त कथन के अनुसार श्रद्धा से चला जा सकता है (गी. १३. २५)। परन्तु नवें प्रकरण के अन्त में कह चुके हैं कि ब्राह्मी स्थिति या सिद्वावस्या की प्राप्ति कर लेना ही इस संसार में मनुष्य का परमसाध्य या अन्तिम ध्येय है, और उसके लिये केवन यह कोरा ज्ञान, के ब्रह्म निर्गुण है, किसी काम का नहीं। दीर्घ समय के अभ्यास और नित्य की आदत से इस ज्ञान का प्रवेश हृदय में तथा देहेन्द्रियों में अच्छी तरह हो जाना चाहिये और आचरण के द्वारा ब्रह्मात्मैश्य बुद्धि ही हमारा देह-स्वभाव हो जाना चाहिये। ऐसा होने के लिये परमेश्वर के स्वरूप का प्रेमपूर्वक चिन्तन करके मन को तदाकार करना ही एक सुलभ उपाय है । यह मार्ग अथवा साधन हमारे देश मे बहुत प्राचीन समय से प्रच- लित है और इसी को उपासना या भक्ति कहते हैं । भक्ति का लक्षण शाण्डिल्य सूत्र (२) में इस प्रकार है कि सा (भक्तिः) परानुरक्तिरीश्वरे "- •ईघर के प्रति 'पर' अर्थात निरतिशय जो प्रेम है उसे भक्ति कहते हैं । 'पर' शब्द का गी. र.५२
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