पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४४७

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४०८ गीतारहत्य अयका कर्मयोगशान । कहते हो, उसी से यह वरगद का बहुत बड़ा वृक्ष हुआ है"; और अंत में यह उपदेश दिया कि 'अद्धत्स्व' अर्थात् इस कल्पना को केवल बुद्धि में रख मुंह से ही 'हाँ' मत कहो, किन्तु उसके आगे भी चलो; यानी इस तत्व को अपने हृदय में अच्छी तरह जमने दो और आचरण या कृति में दिखाई देने दो । सारांश यदि यह निश्चयात्मक ज्ञान होने के लिये भी श्रद्धा की आवश्यकता है, कि स्य का उदय कल सबेरे होगा; तो यह भी निर्विवाद सिद्ध है कि इस बात को पूर्ण- तया जान लेने के लिये-कि सारी सृष्टि का मूलतत्व अनादि, अनन्त, अचकन, सर्वज्ञ, स्वतंत्र और वैतन्यरूप है-पहले हम लोगों को,जहां तक जा सक, बुद्धि- रूपी वटहे का अवलम्वन करना चाहिये, परन्तु आगे उसके अनुरोध से, कुछ दूर तो अवश्यही श्रद्धा तथा प्रेम की पगडंडी से ही जाना चाहिये । देखिये, मैं निस भा कह कर ईश्वर के समान वंद्य और पूज्य मानता हूँ, उसे ही अन्य लोग एक सामान्य स्त्री समझते हैं या नैट्यायिकों के शास्त्रीय शब्दावढंबर के अनुसार "गर्मधारण-प्रसवादेिखीत्वसामान्यावच्छेदकावच्छिन्दव्यक्तिविशेषः समान है। इस एक छोटे से व्यावहारिक उदाहरण से यह बात किसी के भी ध्यान में सहन आ सकती है, कि जब केवल तशास्त्र के सहारे प्राप्त किया गया ज्ञान, श्रद्धा और प्रेम के साँचे में दाला जाता है तब उसमें कैसा अन्तर हो जाता है। इसी कारण्य से गीता (६.१७) में कहा है कि कर्मयोगियों में भी श्रद्धावान् श्रेष्ठ है। और ऐसा ही सिद्धान्त, जैसा पहले कह आये हैं, अध्यात्मशास्त्र में भी किया गया है, कि इंद्रियातीत होने के कारण जिन पदार्यो का चिंतन करते नहीं बनता, उनके स्वरूप का निर्णय केवल तक नहीं करना चाहिये-"अचिन्त्याः खलु ये भावान तांस्तण चिन्तयेत् ।" यदि यही एक अड़चन हो, कि साधारण मनुष्यों के लिये निर्गुण परब्रह्म का ज्ञान होना कठिन है, तो बुद्धिमान् पुरुषों में मतभेद होने पर भी श्रद्धा या विश्वास से उसका निवारण किया जा सकता है। कारण यह है कि इन पुरुषों में वो अधिक विश्वसनीय हॉगे उन्हीं के वचनों पर विश्वास रखने से हमारा कान बन जावेगा (गो. १३.२५) तशास्त्र में इस पाय को "आप्तवचनप्रमाण" कहत हैं। प्राप्त' का अर्थ विश्वसनीय पुरुष है। जगत् के व्यवहार पर घष्टि डालने से यही दिखाई देगा, कि हजारों लोग प्राप्त-वास्य पर विश्वास रख कर ही अपना न्यवहार चलाते हैं। दो पंचे दस के बदले सात क्यों नहीं होते, अथवा एक पर एक लिखने से दो नहीं होते, ग्यारह क्यों होते हैं इस विषय की उपपति या कारण बतलानेवाले पुरुष बहुत ही कम मिलते हैं तो भी इन सिद्धान्तों को सत्य मान कर ही लगद का व्यवहार चल रहा है। ऐसे लोग बहुत ही कम मिसँग वात का प्रत्यक्ष ज्ञान है, कि हिमालय की टंचाई ५ मील है या दस मील । परन्तु जब कोई यह प्रश्न पूछता है कि हिमालय की टंचाई कितनी है, तब भूगोल की पुस्तक में पड़ी हुई " तेईस हजार फीट" संख्या हम तुरन्त ही बतला जिन्हें