गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाख । है कि, मधुमश्खियों के छत्ते में जो छेद होते हैं उनका श्राकार ऐसा होता है कि मधु- रस का धनफल तो कम होने नहीं पाता और बाहर के आवरण का पृष्ठफल बहुत कम हो जाता है जिससे मोम की पैदाशय घट जाती है। इसी प्रकार के उपयोगों पर दृष्टि देते हुए हमने भी गीता की वहिरंग-परीक्षा की है और उसके कुछ महत्व के सिद्धान्तों का विचार इस ग्रंथ के अंत में, परिशिष्ट में, किया है। परन्तु जिनको ग्रंथ का रहस्य ही जानना है उनके लिये यहिरंग-परीक्षा के मगड़े में पड़ना अनावश्यक है। वाग्देवी के रहस्य को जाननेशाला तथा उसकी ऊपरी और बाहरी वातों के जिज्ञासुओं में जो भेद है उसे मुरारि कवि ने बड़ी ही सरलता के साथ दरशाया है- अन्धिलेषित एव वानरभेटः किं त्वस्य गंभीरताम् । आपातालनिममपीवरतनुनीनाति मंयाचलः ॥ अर्थात्, समुद्र की अगाध गहराई जानने की यदि इच्छा हो तो किससे पूछा जाय ? इसमें संदेह नहीं कि राम-रावण युद्ध के समय बैंकड़ों वानरवीर धड़ा- घड़ समुद्र के ऊपर से कूदते हुए लंका में चले गये थे; परन्तु उनमें से कितनों को समुद्र की गहराई का ज्ञान है ? समुद्-मंथन के समय देवताओं ने मन्थनदंड बना कर जिस बड़े भारी पर्वतको समुद्र के नीचे छोड़ दिया था, और जो सचमुच समुद्र के नीचे पावाल तक पहुँच गया था, वही मंदराचल पर्वत समुन्द्र की गहराई को जान सकता है। मुरारि कवि के इस न्यायानुसार, गीता के रहस्य को जानने के लिये, अव इम उन पंडितों और प्राचार्यों के ग्रंथों की ओर ध्यान देना चाहिये जिन्होंने गतिा-सागर का मंथन क्रिया है । इन पंडितों में महाभारत के कर्ता ही अप्रगण्य है। अधिक क्या कहें, भाजल को गीता प्रसिद्ध है उसके यही एक प्रकार से कर्ता मी कहे जा सकते हैं। इसलिये प्रथम उन्हीं के मतानुसार, संक्षेप में, गीता का तात्पर्य दिया जायमा। 'भगवद्गीता' अर्थात् ' भगवान् से गाया गया उपनिपत्' इस नाम ही से, योष होता है कि गीता में अर्जुन को उपदेश किया गया है वह प्रधान रूप से भागवतधर्म-भगवान के चलाये हुए धर्म के विषय ने होगा। क्योंकि श्रीकृष्ण को श्रीमगवानु' का नाम प्रायः मागवतधर्म में ही दिया जाता है। यह उपदेश कुछ नया नहीं है। पूर्व काल में यही उपदेश भगवान ने विवस्वान को, विवस्वान् ने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को किया था । यह यात गीता के चौथे अध्याय के धारंभ (१-३) में दी हुई है। महाभारत, शांतिपर्ष अंत में नारायणीय अथवा मागवतधर्म का बिस्तृत निरूपण है जिसमें, ब्रह्मदेव के अनेक जन्मा में अर्थात् कल्पान्तरों में मागवतधर्म की परंपरा का वर्णन किया गया है। और अंत में, यह कहा गया है:- प्रेतायुगादौ च ततो विवस्वान मनवे ददौ। मनुश्च लोकमृत्यथै सुतायेत्वाकवे ददौ । श्वाकुणा च कथितो ध्याप्य लोकानवस्थितः ।। ।
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