पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४६

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विपयप्रवेश। ६ . अर्थात् ब्रह्मदेव के वर्तमान जन्म के त्रेतायुग में इस भागवतधर्म ने विवस्वान् मनु-इक्ष्वाकु की परंपरा से विस्तारं पाया है (मभा. शां. ३४८. ५१,५२) । यह परंपरा, गीता में दी हुई उक्त परंपरा से, मिलती है (गीता. ४. १ पर हमारी टीका देखो)। दो भिन्न धर्मों की परंपरा का एक होना संभव नहीं है, इसलिये परंपराओं की एकता के कारण यह अनुमान सहज ही किया जा सकता है कि गीताधर्म और भागवतधर्म, ये दोनों एक ही हैं। इन धर्मों की यह एकता केवल अनु- मान ही पर नवलंबित नहीं है । नारायणीय या भागवतधर्म के निरूपण में वैश- पायन जनमेजय से कहते हैं:- एवमेप महान् धर्म: स ने पूर्व नृपोत्तम । कथितो हरिगीतासु समासविधिकल्पितः ॥ अर्थात हे नृपश्रेय जनमेजय ! यही उत्तम भागवतधर्म, विधियुक्त और संक्षिप्त रीति से हरिगीता अर्थात् भगवद्गीता में, तुझे पहले ही बतलाया गया है (मभा. शां. ३५६. १०)। इसके बाद एक अध्याय छोड़ कर दूसरे अध्याय (मभा. शां.३४८.८)में नारायणीय धर्म के संबंध में फिर भी स्पष्ट रीति से कहा गया है कि:- समुपोढेध्वनीकेषु कुरुपांडवयोमधे । अर्जुने विमनस्के च गीता भगवता स्वयम् ॥ अर्थात् कौरव-पांडव-युद्ध के समय जब अर्जुन उद्विश हो गया था तब स्वयं भगवान् ने उसे यह उपदेश किया था। इससे यह स्पष्ट है कि 'हरिगीता' से भगवद्गीता ही का मतलब है । गुरुपरंपरा की एकता के अतिरिक्त यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि जिस भागवतधर्म या नारायणीय धर्म के विषय में दो बार कहा गया है कि वही गीता का प्रतिपाद्य विषय है, उसी को सात्वत ' या ' एकांतिक' धर्म भी कहा है। इसका विवेचन करते समय (शां. ३४७.८०,८१ ) दो लक्षण कहे गये है:- नारायणपरो धर्मः पुनरावृत्तिदुर्लभः । प्रवृत्तिलक्षणश्चैव धर्मो नारायणात्मकः ॥ अर्थात् यह नारायणीय धर्म प्रवृत्तिमार्ग का हो कर भी पुनर्जन्म का टालने- वाला अर्थात् पूर्ण सोन का दाता है। फिर इस घात का वर्णन किया गया है कि यह धर्म प्रवृत्तिमार्ग का कैसे है। प्रवृत्ति का यह अर्थ प्रसिद्ध ही है कि संन्यास न ले कर मरणपर्यन्त चातुर्वर्ण्य-विहित निष्काम कर्म ही करता रहे । इसलिये यह स्पष्ट है कि गीता में जो उपदेश अर्जुन को किया गया है वहभागवतधर्म का है और उसको महाभारतकार प्रवृत्ति-विषयक ही मानते हैं, क्योंकि उपर्युक्त धर्म भी प्रवृत्ति- विपयक है। साथ साथ यदि ऐसा कहा जाय कि गीता में केवल प्रवृत्तिमार्ग का ही भागवतधर्म है तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि वैशंपायन ने जनमेजय से फिर भी कहा है (मभा. शां. ३४८.५३):- गी.र.२ 1