भक्तिमार्ग। ४१३ करने से क्या लाभ है, कि ज्ञानमार्ग श्रेष्ठ है या भक्तिमार्ग श्रेष्ठ है? यद्यपि ये दोनों साधन प्रथमावस्था में अधिकार या योग्यता के अनुसार भिज हों, तथापि अंत में अर्थात् परिणामरूप में दोनों की योग्यता समान है और गीता में इन दोनों को एकही अध्यात्म ' नाम दिया गया है (११.१)। अब ययपि साधन की दृष्टि से ज्ञान और भक्ति की योग्यता एक ही समान है। तथापि इन दोनों में यह महत्व का भेद है, कि भक्ति कदापि निष्ठा नहीं हो सकती, किन्तु ज्ञान को निशा (यानी सिद्धावस्या की अन्तिम स्थिति ) कह सकते हैं । इसमें संदेह नहीं कि, अध्यात्म- विचार से या अध्यक्तोपासना से परमेश्वर का जो ज्ञान होता है, वही भक्ति से भी हो सकता है (गी. १८. ५५ ); परन्तु इस प्रकार ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर भागे यदि कोई मनुन्य सांसारिकार्यों को छोड़ दे और ज्ञान ही में सदा निमन्न रहने लगे, तो गीता के अनुसार वह 'ज्ञाननिर' कहलावेगा, भक्तिानेष्ट' नहीं। इसका कारण यह है कि जब तक भनि की क्रिया जारी रहनी है तब तक उपास्य और पासकरूपी ईत-भाव भी यना रहता है। और अतिम ग्रह्मात्मस्य स्थिति में तो, भक्ति की कौन कहे, अन्य किसी भी प्रकार की पासना शेष नहीं रह सकती। भकि का पर्यवसान या फल ज्ञान है भक्ति ज्ञान का साधन है-वह कुछ अंतिम साध्य वस्तु नहीं । सारांश, अन्यकोपासना की दृष्टि से ज्ञान एक बार साधन हो सकता है, और दूसरी बार ब्रह्मात्मैक्य के अपरोक्षानुभव की दृष्टि से उसी ज्ञान को निष्ठा यानी सिन्हावया की अंतिम स्पिति कह सकते हैं । जय इस भेद को प्रगट रूप से दिखलाने को आवश्यकता होती है, तब 'ज्ञानमार्ग' और 'ज्ञाननिष्ठा' दोनों शब्दों का उपयोग समान अर्थ में नहीं किया जाता; किन्तु अन्यकोपासना की साधनावस्थावाली स्थिति दिखलाने के लिये 'ज्ञानमार्ग' शब्द का उपयोग किया जाता है. और ज्ञान-प्राशि के अनंतर सय कर्मों को छोड़ ज्ञान ही में निमः हो जाने की जो सिद्धावस्था की स्थिति है उसके लिये ज्ञाननिष्ठा' शब्द का उपयोग किया जाता है। अर्थात्, अन्यकोपालना या अध्यात्मविचार के अर्थ में ज्ञान को एक यार साधन (ज्ञानमार्ग) कह सकते हैं, और दूसरी बार अपरो- ज्ञानुभव के अर्थ में उसी ज्ञान को निष्ठा यानी कर्मयागरूपी अंतिम अवस्था कह सकते हैं। यही यात कर्म के विषय में भी कही जा सकती है। शास्त्रोक मयादा के अनुसार जो कर्म पहले चित्त की शुद्धि के लिये किया जाता है वह साधन कहलाता है । इस कम से चित्त की शुद्धि होती है और अंत में ज्ञान तथा शांति की प्राप्ति होती है परन्तु यदि कोई मनुष्य इस ज्ञान में ही निमग्न न रह कर शांतिपूर्वक मृत्युपर्यंत निष्काम-कर्म करता चला जावे, तो की दृष्टि से उसके इस कर्म को निष्ठा कह सकते हैं (गो. ३.३)' यह यात भक्ति के विषय में नहीं कह सकते, क्योंकि भाके सिर एक मार्ग या उपाय अर्थात ज्ञान-प्राशि का साधन ही है-वह निठा नहीं है । इसाजेये गीता के प्रारम्भ में ज्ञान (सांख्य ) और योग (कर्म) यही दो निठार कही गई हैं। उनमें से कर- ज्ञानयुक्त निकामकर्म
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