. ४१४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। योग-निष्टा की सिद्धि के उपाय, साधन, विधि या मार्ग का विचार करते समय (गी.. 2), अव्यक्तोपासना (ज्ञानमार्ग) और व्यक्तोपासना (भक्तिमान)का- अपांद जो दो साधन प्राचीन समय से एक साथ चले रहे हैं उनका-वन करके, गीता में सिर्फ इतना ही कहा है कि इन दोनों में से अव्यवपासना बहुत केशमय है और प्यकोपासना या भक्ति अधिक सुलभ है, यानी इस साधन कर स्वीकार सय साधारण लोग कर सकते हैं । प्राचीन उपनिपदों में ज्ञानमार्ग ही का विचार किया गया है और शाण्डिल्य आदि सूत्रों में तथा भागवत आदि अन्यों में भक्ति-मार्ग भी की महिमा गाई गई है । परन्तु साधन-दृष्टि से ज्ञानमार्ग पर मत्ति-मार्ग में योग्यतानुसार भेद दिखला कर अन्त में दोनों का मन रिकामा कर्म के साथ जैसा गीता ने सम-दि से किया है, वैसी अन्य किसी भी प्राचीन धर्म-अन्य ने नहीं किया है। ईश्वर के स्वरूप का यह ययार्य और अनुभवात्मक ज्ञान होने के लिये, क सब प्राणियों में एक ही परमेश्वर है.' देद्रियधारी मनुष्य को क्या करना चाहिये ? इस प्रश्न का विचार पर्युक्त रीति से करने पर जान पड़ेगा, कि यदि परमेश्वर का श्रेष्ठ स्वरूप अनादि, अनन्त, भानवाच्य, अचिन्त्य और नेति नेति' है, तथापि वह निगुंग, अजय और अव्यक भी है, और जब उसका अनुभव होता है तव उपास्य, उपासकरूपी द्वैत-माव शेष नहीं रहता, इसलिये उपासना का भारम वहाँ से नहीं हो सकता । वह तो केवल अन्तिम साध्य है-साधन नहों और तद्रूप होने की जो अद्वत स्थिति है उसकी प्राति के लिये टपासना केवल एक साधन या उपाय है । अतएव, इस उपासना में जिस वस्तु को स्वीकार करना पड़ा है वसका सगुग होना अत्यन्त आवश्यक है। सर्वज्ञ, सर्वशकिमान्, सर्वव्यापी और निराकार यमस्वरूप वैसा अर्थात् सगुग । परन्तु वह केवल बुद्धिगन्य और आपक मर्थात् इन्द्रियों को अगोचर होने के कारण उपासना के लिये अत्यन्त लेशमय है। अतएव प्रत्येक धर्म में यही देव पड़ता है कि इन दोनों परमेश्वर-स्वरूपों की अपेक्षा जो परमेश्वर अचिन्त्य, सर्वसाक्षी, संबंन्यापी और सर्वशक्तिमान् जगदात्मा शेर भी हमारे समान हम से बोलेगा, हम पर प्रेम करेगा, हमको सन्मार्ग दिखावेगा और हमें सदति देगा. जिसे हम लोग अपना' कह सकी, जिसे हमारे सुख-दुःखों के साथ सहानुभूति होगी चा जो हमारे अपराधों को क्षमा केोगा, जिसके साथ हम लोगो का यह प्रत्यक्ष सम्बन्ध उत्पन्न हो कि हे परमेश्वर! मैं तेरा हूँ, और तू मेरा है, जो पिता के समान मेरी रक्षा करेगा और माता के समान प्यार करेगा; अथवा जो “ गतिमा प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् " (गी.८.५७ और इ) है-अर्थात् जिसके विषय में, मैं यह कह सकंगा कि 'त् मेरी गति है, तु मेरा पोपण-कत्ता है. तू मेरा स्वामी है, तू मेरा सानी है, मेरा विश्रामस्थान है तू मेरा अन्तिम आधार है, तू मेरा सखा है, और ऐसा कह कर वचों की नाई प्रेम. पूर्वक तथा लाड़ से जिसके स्वरूप का आकलन मैं कर सकूँगा-मोसे सत्यसंकल्प
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