गीतारहत्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । भाक्ति को ही परमेश्वर-प्राप्ति का मुख्य साधन माना है। परन्तु साधन की दृष्टि से यद्यपि धासुदेव-भक्ति को गीता में प्रधानता दी गई है, तथापि अध्यात्मवाटेसै विचार करने पर, वेदान्तसून की नाई (वे. सू. ४. १.४) गीता में भी यही स्पष्ट रीति से कहा है, कि 'प्रतीक' एक प्रकार का माधन है-वह सत्य, सर्वव्यापी और नित्य परमेश्वर हो नहीं सकता। अधिक क्या कहें ? नामरूपात्मक और व्यक्त अर्थात् सगुण घस्तुओं में से किसी को भी लीजिये. वह माया ही है जो सत्य परमेश्वर कोदेखना चाहता है उसे इस सगुणरूप के भी परे अपनी दृष्टि को ले जाना चाहिये। भगवान् की जो अनेक विभूतियाँ है उनमें, अर्जुन को दिखलाये गये विश्वरूप से अधिक व्यापक और कोई भी विभूति हो नहीं सकती। परन्तु जब यही विश्वरूप भगवान् ने नारद को दिखलाया तब उन्होंने कहा है, "तू मेरे जिस रूप को देख रहा है यह सत्य नहीं है, यह माया है, मेरे सत्य स्वरूप को देखने के लिये इसके भी आगे तुझे जाना चाहिये" (शां. ३३६.४४); और गीता में भी भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट रीति से यही कहा है- अव्यक्त व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः । परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तम् ॥ यद्यपि मैं अध्यक्त हूँ तथापि मूर्ख लोग मुझे व्यक (गी. ७. २४) अर्थात् मनुष्य देहधारी मानते हैं (गी....): परन्तु यह वात सच नहीं है। मेरा अन्यक स्वरूप ही सत्य है। इसी तरह पनिपदों में भी यद्यपि उपासना के लिये मन,चाचा, सूर्य,आकाश इत्यादि अनेक व्यक्त और अन्यक्त ब्रह्मप्रतीकों का वर्णन किया गया है। तथापि अन्त में यह कहा है कि जो वाचा, नेत्र या कान को गोचर हो वह ब्रह्म नहीं, जैसे- यन्मनसा न मनुते येनाऽऽहुर्भनो मतम् । तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।। 'मन से जिसका मनन नहीं किया जा सकता, किन्तु मन ही जिसकी मनन शक्ति में आ जाता है, उसे तू ब्रह्म समझ; जिसकी उपासना की (प्रतीक के तौररस) जाती है वह (सत्य) ब्रह्म नहीं है" (केन. १.५-८)। नेति नेति" सूत्र का भी यही अर्थ है। मन और आकाश को लीजिये अथवा व्यक्त उपासना-मार्ग के अनुसार शालग्राम, शिवलिंग इत्यादि को लीजिये या श्रीराम, कृष्ण आदि अव. तारी पुरुषों की अथवा साधुपुरुषों की व्यक्त मूर्ति का चिन्तन कीजिये; मंदिरों में शिलामय अथवा धातुमय देव मूर्ति को देखिये अथवा बिना मूर्ति का मंदिर, यामम- जिद, लीजिये ये सब छोटे बच्चे की लँगड़ी-गाड़ी के सयान मन को स्थिर करने के लिये अर्थात् चित्त की वृत्ति को परमेश्वर की ओर भुकाने के साधन हैं । प्रत्येक मनुष्य अपनी अपनी इच्छा और अधिकार के अनुसार अपासना के लिये किसी प्रतीक को स्वीकार कर लेता है। यह प्रतीक चाहे कितना ही प्यारा हो, परन्तु इस
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४५९
दिखावट