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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४६०

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भक्तिमार्ग। ४२१ बात को नहीं भूलना चाहिये कि सत्य परमेश्वर इस " प्रतीक में नहीं है"-"न प्रतीक नाहे सः" (वे. सू. ४. १.४)--उपके परे है । इसी हेतु से भगवद्गीता में भी सिद्धान्त किया गया है कि "जिन्हें मेरी माया मालूम नहीं होती वे मूदजन मुझो नहीं जानते" (गी. ७.१३-१५) । भनि.मार्ग में मनुष्य का उद्धार करने की जो शक्ति है वह कुछ सजीव अथवा निधि मृति में या पत्थरों की इमारतों में नहीं है, किन्तु उस प्रतीक में उपासक अपने सुभीत के लिये जो ईश्वर-भावना रखता है, वही यथार्थ में तारक होती है। चाहे प्रतीक पार का हो, मिट्टी का ही, धातु का हो या अन्य किसी पदार्थ का हो; उसकी योग्यता 'प्रतीक' से अधिक कभी हो नहीं सकती। इस प्रतीक में जैसा हमारा भाव होगा ठीक उसी अनुसार हमारी भक्ति का फल परमेश्वर-प्रतीक नहीं-हमें दिया करता है। फिर ऐसा बखेड़ा मचाने से क्या लाभ कि हमारा प्रतीक श्रेष्ठ है और तुम्हाग निकृष्ट ? यदि भाव शुद्ध न हो तो केवल प्रतीक की उत्तमता से ही क्या लाभ होगा? दिन भर लोगों को धोखा देन और पाने का धंधा करके सुबह-शाम या किसी योहार के दिन देवालय में देव दर्शन के लिये अथवा किसी निराकार देव के मंदिर में उपा- सना के लिये जाने से परमधर की प्राति असम्भव है। कथा सुनने के लिये देवा- लय में जानेवाले कुछ मनुष्यों का वर्णन रामदास स्वामी ने इस प्रकार किया है- "कोई कोई विषयी लोग कथा सुनते समय स्त्रियों की की ओर धूरा करते हैं; चोर लोग पादनागा (जूते) चुरा ले जाते हैं" (दास. १८.१०.२६)। यदि केवल देवा- लय में या देवता की मूर्ति ही में तारक-शक्ति हो, तो ऐसे लोगों को भी मुनि मिल जानी चाहिये ! कुछ लोगों की समझ है, कि परमेश्वर की भक्ति केवल मोन भी के लिये की जाती है, परन्तु जिन्हें किसी व्यावहारिक या स्वार्थ की घस्तु चाहिये वेभिज मिल देवताओं की आराधना करें। गीता में भी इस बात का उल्लेख किया गया है, कि ऐसी स्वाध-शुद्धि से कुत्र लोग भिन्न भिन्न देवता की पूजा किया करते हैं (गी. ७.२०)। परन्तु इसके आगे गीता ही का कथन है कि यह समझ तायिक दृष्टि से सच नहीं मानी जा सकती कि इन देवताओं की आराधना करने से वे स्वयं कुछ फल देते हैं (गी. ७. २१)। अध्यात्मशास का यह चिरस्थायी सिद्धान्त है (वे. सू. ३. २. ३८.४१) और यही सिद्धान्त गीता को भी मान्य है, (गी. ७.२२)कि मन में किसी भी वासना या कामना को रखकर किसी भी देवता की भाराधना की जावे, उसका फल सर्वव्यापी परमेश्वर ही दिया करता है, नकि देवता। यद्यपि फल-दाता परमेश्वर इस प्रकार एक ही हो, तथापि वह प्रत्येक के भले-बुरे भावों के अनुसार भिल भिन्न फल दिया करता है (वे. सू. २. १. ३४-३७), इसलिये यह देख पड़ता है कि भिा मिल देवताओं की या प्रतीकों की उगमना के फल भी भिन्न भिन्न होते हैं। इसी अभिप्राय को मन में रखकर भगवान् ने कहा है- श्रदामयोऽयं पुरुषो यो यच्छूद्धः स एव सः ।