भक्तिमार्ग। ४२३ अर्थात् "चाहे विधि, अर्थात् वायोपचार या साधन, शास्त्र के अनुसार न हो,तथापि अन्य देवताओं का श्रद्धापूर्वक (पानी उन स शुद्ध परमेश्वर का भाव रख कर) यजन करनेवाले लोग (पाय से) मेरा ही यजन करते हैं" (गी. ६. २३)। भागवत में भी इसी अर्थ का वर्णन कुछ शब्द-मंद क साथ किया गया है (भाग. १०.पू. ५०. ८-१०); शिवगीता में तो उपर्युक्त श्लाक ज्यों का त्यों पाया जाता है (शिव १२. ४); और “एक सद्विगग बहुधा वदति" (. १. १६४. ४६) इस वेदवचन का तात्पर्य भी वही है। इससे सिद्ध होता है कि यह तत्त्व वैदिक धर्म में बहुत प्राचीन समय से चला या रहा है और यह इसी ताव का फल है कि याधुनिक काल में श्रीशिवाजी महाराज के समान वैदिकधर्मीय परिपुरुष के. स्वभाव में, उनके परम उत्कर्ष के समय में भी, परधर्म असहिष्णुता-रूपी दोप देख नहीं पड़ता था। यह मनुष्यों की अत्यन्त शांचय मूर्खता का लक्षण है कि वे इस सत्य तत्व को तो नहों पहचानते कि ईश्वर पर्वव्यापी, सर्वसाक्षी, लवंह, सर्वशक्तिमान् और उसके भी परे अर्थात् अभिन्य है। किन्तु वे ऐसे नाम-रूपात्मक व्यर्थ अभिमान के अधीन हो जाते हैं कि ईश्वर ने अमुक समय, अमुक वेश में, अमुक माता के गर्म से, अमुक वर्ण का, नाम का या प्राकृति का जो व्यक स्वरूप धारण किया, वहीं केवल सत्य है और इस अभिमान स फंसकर एक दूसरे की जान लेने तक को उतारू हो जाते हैं। गीता-प्रातपादित भक्तिमार्ग को राजविद्या' कहा है सही, परन्तु यदि इस बात की खोज की जाय कि जिस प्रकार स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही ने "मरा एश्य स्वरूप भी केवल माया ही है, मो. यथार्थ स्वरूप को जानने के लिये इस माया से भी परे जाओ" कह कर यथार्य उपदेश किया है, उस प्रकार का उपदेश और किसने किया है, एवं "अविभक्त विभक्त " इस सात्विक ज्ञानदृष्टि से सब धर्मों की एकता को पहचान कर, मक्तिमार्ग के थोथे झगड़ों की जड़ ही को काट डालनेवाले धर्मगुरु पहले पहल कहाँ अवतीर्ण हुए, अथवा उनके मतानु- यायी अधिक कहाँ हैं, तो कहना पड़ेगा कि इस विषय में हमारी पवित्र भरतभूमि को ही अग्रस्थान दिया जाना चाहिये। हमारे देशवासियों को राजविया का और राजगुल का यह साक्षात् पारस अनायास ही प्राप्त हो गया है। परन्तु जब हम देखते हैं कि हममें से ही कुछ लोग अपनी आँखों पर अज्ञानरूपी, चश्मा लगाकर उस पारस को चकमक पत्थर कहने के लिये तैयार हैं, तब इसे अपने दुर्भाग्य के सिवा और क्या कहें! प्रतीक कुछ भी हो, भक्तिमार्ग का फल प्रतीक में नहीं है, किन्त उस प्रतीक में जो हमारा आन्तरिक भाव होता है उस भाव में है इसलिए यह सच है कि प्रतीक के बारे में झगड़ा मचाने से कुछ लाभ नहीं। परन्तु अब यह शङ्का है कि वेदान्त की दृष्टि से जिस शुद्ध परमेश्वर-स्वरूप की भावना प्रतीक में आरोपित करनी पड़ती है, उस शुद्ध परमेश्वर-स्वरूप की कल्पना बहुतेरे लोग अपनी प्रकृतिस्वभाव या अज्ञान के कारण ठीक ठीक कर नहीं सकते; ऐसी अवस्था में इन लोगों के लिये
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