४२२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । मनुष्य श्रद्धामय है प्रतीक कुछ भी हो, परन्तु जिसकी जैसी श्रद्धा होती है वैसा झी वह हो जाता है" (गी. १७. मैन्यु. ४६); अथवा- यांति देवव्रता देवान् पितृन् यांति पितृवताः। भूतानि यांति भूतेच्या यांति मद्याजिनोऽपि माम् ॥ " देवताओं की भक्ति करनेवाले देवलोक में, पितरों की भक्ति करनेवाले पितृलोक में, भूतों की भक्ति करनेवाले भूतों में जाते हैं और मेरी भाक्ति करनेवाले मेरे पास आते हैं" (गी.६.२५); या- ये यथा मां प्रपद्यते तांस्तथैव भजाम्यहम् । "जो जिस प्रकार मुझे भजते हैं, उसी प्रकार मैं उन्हें भजता हूँ" (गी. ४.११)। सब लोग जानते हैं कि शालग्राम सिर्फ एक पत्थर है। उसमें यदि विष्णु का भाष रखा जाय तो विष्णु-लोक मिलेगा और यदि उसी प्रतीक में यन, राक्षस आदिभूता की भावना की जाय तो यत, रानस प्रादि भूतों के ही लोक प्राप्त होंगे । यह सिद्धान्त हमारे सव शास्त्रकारों को मान्य है कि फल हमारे भाव में है, प्रतीक में नहीं । लौकिक व्यवहार में किसी मूर्ति की पूजा करने के पहले उसकी प्राण-प्रतिष्ठा करने की जोशति है उसका भी रहस्य यही है। जिस देवता की भावना से उस मूर्ति की पूजा करनी हो उस देवता की प्राण-प्रतिष्ठा उस मूर्ति में की जाती है। किसी मूर्ति में परमेश्वर की भावना न रख कोई यह समझ कर उसकी पूजा या आरा- धना नहीं करते, कि यह मूर्ति किसी विशिष्ट आकार की सिर्फ मिट्टी, पत्यर या धातु है। और, यदि कोई ऐसा करे भी तो गीता के उक्त सिद्धान्त के अनुसार उसको भट्टी, पत्थर या धातु ही की दशा निस्सन्देह प्राप्त होगी ।जय प्रतीक में और प्रतीक में स्थापित या प्रारोपित किये गये हमारे आंतरिक भाव में, इस प्रकार भेद कर लिया जाता है तब केवल प्रतीक के विषय में झगड़ा करते रहने का कोई कारण नहीं रह जाता क्योंकि अब तो यह भाव ही नहीं रहता कि प्रतीक ही देवता है। सय कमी के फलदाता और सर्वसाक्षी परमेश्वर की घष्टि अपने भक्तजनों के भाव की और ही रहा करती है। इसलिये साधुतुकाराम कहते हैं कि “ देव भाव का ही भूखा है" प्रतीक का नहीं। भाक्ति-मार्ग का यह सव जिसे मली भाँति मालूम हो जाता है, उसके मन में यह दुराग्रह नहीं रहने पाता कि मैं जिस ईश्वरस्वरूप या प्रतीक की उपासना करता हूँ वही सच्चा है, और अन्य सब मिथ्या है;" किन्तु उसक अन्तःकरण में ऐसी उदार-शुद्धि जागृत होजाती है कि किसी का प्रतीक कुछ भी हो, परन्तु जो लोग उसके द्वारा परमेश्वर का भजन-पूजन किया करते हैं वे सब एक ही परमेश्वर में जा मिलते हैं। और, तब उसे भगवान् के इस कथन की प्रतीति होने लगती है, कि- येऽप्यन्यदेवतामक्ताः यजते श्रद्धयान्विताः । तेऽपि मामेव कौंतेय यनंत्यविधिपूर्वकम् ॥
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