पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४६४

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भक्तिमार्ग। ४२५ जंचता ही नहीं अथवा यह भी देखा गया है कि कभी कभी-विशेषतः श्रद्धा और बुद्धि दोनों हीजन्मतःसपक्व और कमजोर होतय-वह मनुष्य उसी उपदेश का विपरीत अर्थ किया करता है। इसका एक उदाहरण लीजिय । जव ईसाई धर्म के उपदेशफ माफ्रिका निवासी नीमो जाति के जंगनी लोगों को अपने धर्म का उपदेश करने लगते हैं, तब उन्हें प्रकाश में रहनेवाले पिता की मथवा ईलामसीह की मी यथार्थ में कुछ भी कल्पना हो नहीं सकती। उन्हें जो कुछ बतलाया जाता है उसे वे अपनी अपक-बुद्धि के अनुसार अयथार्थभाव से ग्रहण किया करते हैं । इसीलिये एक अंग्रेज़ ग्रन्यकार ने लिखा है कि उन लोगों में सुधरे हुए धर्म को समझने की पात्रता लाने के लिये सब से पहले उन्हें अर्वाचीन मनुष्यों की योग्यता को पहुँचा देना चाहिये । भवभूति के इस हटान्त में भी वही अर्थ है-एक ही गुरु पास पढे हुए शिप्यों में मिलता देख पडती है यद्यपि सूर्य एक ही है तथापि उसके प्रकाश से काँच के मणि से भाग निकलती है और मिट्टी के ढेले पर कुछ भी परि. गणाम नहीं होता (उ. राम. २.४) । प्रतीत होता है कि प्रायः इसी कारण से प्राचीन समय में शूद्र आदि साजन वेद श्रवण के लिये अनधिकारी माने जाते होंगे गीता में भी इस विषय की चर्चा की गई है। जिस प्रकार बुद्धि के स्वभावतः सात्विक, राजस और तामस भेद हुमा करते हैं (१८.३०-३२) उसी प्रकार श्रद्धा के भी स्वभावतः तीन भेद होते हैं (१७.२)। प्रत्येक व्यक्ति के देवस्वभाव के अनुसार उसको श्रद्धा भी स्वभावतः भित्र हुआ करती ई (१७.३). इसलिये भगवान् कहते हैं कि जिन लोगों की श्रद्धा साविक है वे देवताओं में, जिनकी श्रद्धा रागस ई वे यक्ष राक्षम प्रादि में और जिनकी श्रद्धा तागस है वे भूत-पिशाच अादि में विश्वास करते हैं (गी. १७.४-६) । यदि मनुष्य की श्रद्धा का अच्छापन या खुरापन इस प्रकार ने पर्णिक. स्वभाव पर चलम्बित है, तो अब यह प्रश्न होता है कि यथाशक्ति भक्तिमाव से इस भन्दा में कुछ सुधार हो सकता है या नहीं, और वह किसी समय शुद्ध अर्थात सात्विक अवस्था को पहुँच सकती है या नहीं ? भक्तिमार्ग के उक्त प्रश्न का स्वरूप कर्मविपाक-प्रक्रिया के ठीक इस प्रश्न के समान है, कि ज्ञान की प्राप्ति कर लेने के लिये मनुष्य स्वतन्त्र है या नहीं ? कहने की आवश्यकता नहीं कि इन दोनों प्रश्नों का उत्तर एक भी है। भग- " And the only way, I supposo, in which boings of 60 low an order of dorclopinont ( c. g. an Australian favago or a Buslimin ) could bo raisod to a civilized lovel of fooling and thought would bn by otltivation continued through sov oral geno- rations; they would liave to undergo a urudual procoss of hamani- zation before thoy cond attain to the capacity of civilization." Dr. Nandsloy'u Burdu on Jind. Ed. 1873. p. 57. t Seo Maxmallor's Three Lectures on the Vedanti Philo- sophy, pp. 72, 73. गीर ५४