४२६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। वान् ने अर्जुन को पहले यही उपदेश किया कि " मन्येव मन आधन्व" (गी. १२.८) अर्थात मेरे शुद्ध-स्वरूप में तू अपने मन को स्थिर कर; और इसके बाद परमेश्वर-स्वरूप को मन में स्थिर करने के लिये भिन्न भिन्न उपायों का इस प्रकार वर्णन किया है-“यदित र स्वल्पमें अपने वित्त को स्थिर न कर सका हो तो तू अभ्यास अर्यात यारवार प्रयत्न र यदितुझ सेनम्यास मी न हो सके तो मेरे लिये चित्त-शुद्धिकारक कर्म कर, अदि यह मी न हो सके तो कर्म-फल का त्याग कर और उससे मेरी प्राप्ति कर ले " (गी. १२.813; माग. ११. ११.२०-२५)। यदि मून देहस्वमाव अथवा प्रकृति तामस हो तो परमेश्वर के शुदस्वरूप में विच को स्थिर करने का प्रयत्न एकदम या एकही जन्म में सन्त नहीं होगा, परतु कर्मयोग के समान मनिमार्ग में भी कोई वात निष्फल नहीं होती। स्वयं भगवान् सब लोगों को इस प्रकार नरोला देते हैं- बहूनां जन्मनामंत ज्ञानवान् मां प्रपद्यते । वासुदेयः ममिति स म्हारमा सुदुलमः ॥ जब कोई मनुष्य एक वार भक्तिमान से चलने लगता है, तब इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में अगले जन्म में नहीं तो उसके नागे के जन्म में,कमीन कमी,स परमेश्वर के स्वरूप का ऐसा ययायं ज्ञान प्रात होजाता है कि "यह सब पुदेवात्मक ही ई" और इस ज्ञान से अन्त में उसे मुक्ति नी मिल जाती है (गी... E)। छठवें अध्याय में भी इसी प्रकार कर्मयोग का अभ्यास करनेवाले के विषय में कहा गया है कि " अनेकजन्मसिद्धस्तनो याति पर गतिन् । (६.४५) और नाक- मार्ग के लिये भी यही नियम उपयुक्त होता है । मक को चाहिये कि वह विस देव का मात्र प्रतीक में रखना चाहे, उसके स्वरूप को अपने देहस्वभाव के अनु. सार पहले ही से यथाशक्ति शुद्ध मान ने । कुछ समय तक इसी भावना का पल परमेश्वर (प्रतीक नहीं दिया करता है (७.२२) । परनु इसके आगे चित्र- शुद्धि के लिये किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं रहती; यदि परमेश्वर की वही भक्ति ययामति हमेशा जारी रहे तो भक्त के अन्तःकरण की भावना आप ही आप उन्नत हो जाती है, परमेश्वर-सन्दन्वी ज्ञान की वृद्धि भी होने लगती है, मन की ऐसी अवस्था हो जाती है कि" वासुदेवः सर्वद, " उपास्य और उपासक का भेद-भाव शेष नहीं रह जाता और अन्त में शुद्ध ब्रह्मानन्द में आत्मा का लय हो जाता है। मनुष्य को चाहिये कि वह अपने प्रयत्न की मात्रा को कभी कम न गरे । सारांश यह है, कि जिस प्रकार किसी मनुष्य के मन में कर्मयोग की जिज्ञासा के उत्पन्न होते ही वह धीरे धीरे पूर्ण सिद्धि की ओर आप ही आप आकर्षित हो जाता है (गी.६.४८); उसी प्रकार गीता-धर्म का यह सिद्धान्त है कि वा मशि- माग में भी कोई मक एक यार अपने तई ईश्वर को सौंप देता है तो स्वयं भगवान ही उसकी निष्ठा को बढ़ाते चले जाते हैं और अन्त में अपने यथार्थ स्वरूप का पूर्ण-
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