भक्तिमार्ग। ४३१ (गी. ७.२१), अथवा "ददामि युद्धियोग तं येन मामुग्याँति ते" (गी. १०.१०)। इसी प्रकार संसार में सय कर्म परमेघर फी ही सत्ताले हुआ करते हैं, इसलिये भक्ति-मार्ग में यह वर्णन पाया जाता है कि वायु भी उसी के भय से चलती है और सूर्य तथा चन्द्र भी उसी की शकि से चलते हैं (कठ. ६.३.३. ८.६) मधिक क्या कहा जाय, उसकी इच्छा के पिना पेट का एक पत्ता तक नहीं हिलता। यही कारण है कि भफिमार्ग में यह कहते हैं कि मनुष्य केवल निमित्तमात्र ही के लिये सामने रहता है (गी. ११.३३) और उसके सब व्यवहार परमेश्वर की उसके हृदय में निवास कर, उससे कराया करता है। साधु तुकाराम कहते हैं कि, "यह भागी कंवल निमित्त श्री के लिये स्वतन्त्र है। मेग मेरा' कह कर व्यर्थ हो गद अपना नाश कर लेता है। इस जगत् के व्यवहार और सुस्थिति को स्थिर रखने के लिये सभी लोगों को धर्म करना चाहिये। परन्तु ईशावास्योपनिषद् का जो यह तत्व है कि जिस प्रकार अज्ञानी लोग किसी कर्म को मेरा' कह कर भ्यिा करते है, पेसा न कर ज्ञानी पुरुष को प्रापंण पुद्धि से सर फर्म मृत्यु पर्यंत करते रहना चाहिये-सीमा सारांश उरक उपदेश में है। यही उपदेश भगवान ने मधुन को इस श्लोक में किया है- याकगार यदभामि यज्जुहोषि ददासि यत् । यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुमष्य मदर्पणम् ।। अपांत "जो एन्छ सू करेगा, सायंगा, हवन करेगा, देगा, या तर फरेगा, यह सप मुझे शर्पणा कर" (गी. ६.२७), इपले शुझे हम फी पाश नहीं होगी। भगवद्गीता का यही श्लोक शिवगीता (१४.४५) में पाया जाता है और माग. पत के इस लोक में भी उसी अर्थ का वर्णन है- कायेन वाचा मनद्रियैर्वा बुद्ध थारमना चाऽनगृतत्वभावात् । फराति यद्यमकलं पर नारयणायति समर्पयेत्तत् ।। "फाया, पाचा, मन, इन्द्रिय धुद्धि या आत्मा की प्रति से सपया स्वभाव के अनुसार जो कुछ हम किया करते हैं वह सप पातर नारायाण को समर्पण कर दिया जाये"(भाग. ११.२.३६) । गारांश यह है, कि 'अध्यात्मशाख मनिसे शन-कर्म-समुच्य पद, फलाशात्याग अथवा प्रसार्पापूर्वक कर्म कहते हैं (गी. ४. २४.५.१०,१२.१२) उसी को भाजपा में "पागपुर मर्म" यह नपा नाम मिल जाता है। भक्तिमागंयाल भोजन समय "गोविन्द, गोविन्द" कहा करते है। उसका रहस्य इस गाणबुद्धि में ही है। ज्ञानी जनक ने कहा कि हमारे सथ प्यवहार लोगों के उपयोग के लिये निकाम शुद्धि से हो रहे हैं: सोर भगवाफ भी साना. पीना इत्यादि अपना सब व्ययभार प्रयागवृद्धि से ही किया करता है। उयापन, ब्राह्मण-भाजन अथवा अन्य तापूर्त कर्म करने पर भन्त में इदं कृप्यापंगामस्तु" अथवा " हरिदाता हरिभोक्ता" कह कर पानी
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४७०
दिखावट