पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४७१

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। यदि सारी आयु ४३२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाख । छोडने की नो रीति है, उसका मूलतत्व भगवद्गीता के उक्त श्लोक में है। यह सच है कि जिस प्रकार बालियों के न रहने पर कानोंके छंद मात्र वाकी रह जाये, उसी प्रकार वर्तमान समय में उक्त संकल्प की दशा हो गई है क्योंकि पुरोहित उस संकल्प के सच्चे अर्थ को न समझकर सिर्फ तोते की नाई उसे पढ़ा करता है और यजमान बहिरे की नाई पानी छोड़ने की कवायत किया करता है! परन्तु विचार करने से मालूम होता है कि इसकी जड़ में कर्म-फलाशा को छोड़ कर कर्म करने का तच्च है चार इसकी हंसी करने से शास्त्र में तो कुछ दोप नहीं आता; किन्तु हँसी करनेवाले की अज्ञानता ही प्रगट होती के कर्म-यहाँ तक कि जिन्दा रहने का भी कम-इस प्रकार कृष्णापर्ण बुदि से अथवा फलाशा का त्याग कर किये जावे; तो पापवासना कैसे रह सकती है और कुकर्म केले हो सच्ते हैं? फिर लोगों के उपयोग के लिये कर्म करो, संसार की मलाई के लिये आत्म-समर्पण करो, इत्यादि उपदेश करने की आवश्यकता दी कहाँ रह जाती है? तव तो 'मैं और लोग' दोनों का समावेश परमेश्वर में और परमेश्वर का समावेश टन दोनों में हो जाता है। इसलिये स्वार्थ और परायं दोनों ही कृष्णार्पणरूपी परमार्थ में डूब जाते हैं और महात्माओं की यह उक्ति ही चारितार्थ होती है कि "संतों की विभूतिया जगत् के कल्याण ही के लिये हुआ करती है वे लोग परोपकार के लिये अपने शरीर को कष्ट दिया करते हैं। पिछले प्रकरण में युक्तिवाद् से यह सिद्ध कर दिया गया है कि जो मनुष्य अपने सब काम कृष्णार्पण बुद्धि से किया करता है, उसका योगक्षेम किसी प्रकार तक नहीं रहता; और भक्तिर्ग- वालों को तो स्वयं भगवान् ने गीता में आवासन दिया है कि "तेपां नित्यामियुननां योगक्षेमं वहाम्यहन्" (गी. ६. २२) । यह कहने की आवश्यकता नहीं कि जिस प्रकार ऊँचे दले के ज्ञानी पुरुष का कर्तव्य है कि वह सामान्यजना में बुद्धि-भेद न करके उन्हें सन्मार्ग में लगावे (गी. ३.२६), उसी प्रकार परमश्रेष्ठ भक्त का भी यही कर्तव्य है कि वह निन्नश्रेयी के भक्तों की श्रद्धा को भ्रष्ट न कर उनके अधिकार के अनुसार ही उन्हें उन्नति के मार्ग में नगा देवे। सारांश, उक्त विवेचन से यह मालूम हो जायगा. कि अध्यात्मशास्त्र में और कर्म-विपाक में जो सिद्धान्त कहे गये हैं वे सब, कुछ शब्द-भेद से, मचिमार्ग में भी कायम रखे गये हैं और ज्ञान तथा भक्ति में इस प्रकार मेल कर देने की पद्धति हमारे यहाँ बहुत प्राचीन समय से प्रचलित है। परन्तु वह शब्द-मैद से अर्थ के अनर्थ हो जाने का भय रहता है, वहां इस प्रकार से शन्द-भेद भी नहीं किया जाता, क्योंकि अर्थ ही प्रधान बात है। उदा. हणार्थ. कर्म-विपाक-प्रक्रिया का यह सिद्धान्त है कि ज्ञान-प्राप्ति के लिये प्रत्येक मनुष्य स्वयं प्रयत्न करे और अपना उद्धार अाप ही कर ले। यदि इसमें शब्दों का कुव भेद करके यह कहा जाय कि यह काम भी परमेश्वर ही करता है, तो मूढ़ जन आलपी हो जायेगे । इसलिये “आत्मैव लात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मनः"-