भक्तिमार्ग। ४३५ भक्तिमार्ग से दया, करुणा, कर्तव्यप्रीति इत्यादि श्रेष्ठ मनोवृत्तियों का नाश नहीं हो सकता बल्कि वे और भी अधिक शुद्ध हो जाती हैं। ऐसी दशा में यह प्रश्न ही नहीं उठ सकता, कि कर्म को या न करें ? यरन भगवाक तो वही है कि जिसके मन में ऐसा अभेद-भाव उत्पन हो जाय- जिसका कोई न हो हदय से उसे लगावे, प्राणिमात्र के लिये प्रेम की ज्योति जगावे। सव में विभु को व्यास जान सब को अपनावे, है बस ऐसा वही भक्त की पदवी पावे ॥ ऐसी अवस्था में स्वभावतः उन लोगों की वृत्ति लोकसंगह ही के अनुकल हो जाती है, जैसा कि ग्यारहवें प्रकरण में कह पाये हैं- सन्तों की विभूतियों जगत् के कल्याण ही के लिये हुआ करती है वे लोग परोपकार के लिये अपने शरीर को काट दिया करते हैं। "जब यह मान लिया कि परमेश्वर ही इस सृष्टि को उत्पन्न करता है और उसके सय व्यवहारों को भी किया करता है, तब यह अवश्य ही मानना पड़ेगा कि उसी सृष्टि के व्यवहारों को सरलता से चलाने के लिये चातु- चर्य आदि जो व्यवस्थाएँ हैं वे उसी की इच्छा से निर्मित हुई हैं । गीता में भी भगवान ने स्पष्ट रीति से यही कहा कि " चातुर्वण्य मया सृष्टं गुणकर्म-विमा- गशः" (गी. ४. १३) अर्थात् यह परमेश्वर ही की इच्छा है, कि प्रत्येक मनुष्य अपने अपने अधिकार के अनुसार समाज के इन कामों को लोकसंग्रह के लिम करता रहे। इससे आगे यह भी सिद्ध होता है कि सृष्टि के जो व्यवहार परमधर की इच्छा से चल रहे हैं, उनका एक आध विशेष भाग किसी मनुष्य के द्वारा पूरा कराने के लिये ही परमेश्वर उसको उत्पन्न किया करता है और यदि परमेश्वरद्वारा नियत किया गया उसका यह काम मनुष्य न करे, तो परमेश्वर ही की अवज्ञा करने का पाप उसे लगेगा । यदि तुम्हारे मन में यह अहंकार-बुद्धि जागृत होगी, कि ये काम मेरे हैं अथवा मैं उन्हें अपने स्वार्थ के लिये करता हूँ, तो उन कमी के भले युरे फल तुम्हें आवश्य भोगने पड़ेंगे। परन्तु यदि तुम इन्हीं की को केवल स्वधर्म जान कर परमेश्वरार्मश पूर्वक इस भाव से करोगे, कि परमेघर के मन में जो कुल करना है उसके लिये मुझे निमित्त करके यह मुझसे काम कराता है' (गी. ११. ३३), तो इसमें कुल अनुचित या अयोग्य नहीं, बल्कि गीता का यह कथन है कि इस स्वधर्माचरण से ही सर्वभूतान्तर्गत परमेश्वर की साविक भक्ति हो जाती है। भगवान ने अपने सय उपदेशों का तात्पर्य गीता के अन्तिम अध्याय में उपसंहार-रूप से अर्जुन को इस प्रकार बतलाया है- सय प्राणियों के हृदय में निवास करके पर. मेवर ही उन्हें यन्त्र के समान नचाता है। इसलिये ये दोनों भावनाएँ मिथ्या हैं कि मैं अमुक कर्म को छोड़ता हूँ या अमुक कर्म को करता हूँ। फलाशा को छोड़ सब कर्म कृष्णार्पण-युद्धि से करते रहो, यदि तू ऐसा निग्रह करेगा कि मैं इन कर्मों को नहीं करता, तो मी प्रकृति-धर्म के अनुसार तुझे उन कर्मों को करना ही होगा, प्रत-
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