पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४७५

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाला एव परमेश्वर में अपने सब स्वाथों का लय करके स्वधर्मानुसार प्राप्त व्यवहार को परमार्थ बुद्धि से और वैराग्य से लोकसंग्रह के लिये तुझे अवश्य करना ही चाहिय; मैं भी यही करता हूँ। मेरे उदाहरण को देख और उसके अनुसार यतीव कर।" जैसे ज्ञान का और निष्काम-कर्म का विरोध नहीं, वैसे ही भक्ति में और कृष्णाणा- बुद्धि से किये गये कर्मों में भी विरोध उत्पन्न नहीं होता । महाराष्ट्र के प्रसिद्ध भगवनत तुकाराम भी भक्ति के द्वारा परमेश्वर के “अणोरणीयान् महतो मही- यातू " (क. २. २०गी..)-परमाणु से मी छोटा और बड़े से भी बड़ा- ऐसे स्वरूप के साथ अपने तादाल्य का वर्णन करके कहते हैं, कि "अब मैं केवल परोपकार ही के लिये बचा हूँ।" उन्होंने संन्यासमार्ग के अनुयायियों के समान यह नहीं कहा, कि अब मेरा कुछ भी काम शेप नहीं है बल्कि वे कहते हैं कि "मिक्षा- पान का अवलम्ब करना नजास्पद जीवन है-श्रह नष्ट हो जाये; नारायण ऐसे मनुष्य की सर्वथा उपेक्षा ही करता है" अथवा " सत्यवादी मनुष्य संसार के सब काम करता है और उनसे, जल में कम पत्र के समान, अलिपरहता है जो उपकार करता है और प्राणियों पर दया करता है उसी में आत्म-स्थिति का निवास जानो।" इन वचनों से साधु तुकाराम का इस विषय में स्पष्ट अभिप्राय व्यक्त हो जाता है। यद्यपि तुकाराम महाराज संसारी थे, तथापि उनके मन का मुकाव कुछ कुछ कर्मत्याग ही की और था । परन्तु प्रवृत्तिप्रधान भागवतधर्म का लक्षण अथवा गीता का सिद्धान्त यह है, कि स्कटमाक्ति के साथ साथ मृत्यु पर्यंत इंवराण- पूर्वक निष्कामकर्म करते ही रहना चाहिये और यदि कोई इस सिद्धान्त का पूरा पूरा स्पष्टीकरण देखना चाहे तो उसे श्रीसमर्थ रामदासस्वामी के वासबोध ग्रंथ को ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिये (स्मरण रहे कि साधु तुकारान ने ही शिवाजीमहा- राज को जिन “ सद्गुरु की शरण" जाने को कहा था, उन्हाँका यह प्रासादिक ग्रंथ है)रामदास स्वामी ने अनेक बार कहा है कि भक्ति के द्वारा अथवा ज्ञान के द्वारा परमेश्वर के शुद्धस्वरूप को पहचान कर तो सिद्धपुरुष कृतकृत्य हो चुके हैं, वे "सब लोगों को सिखाने के लिये" (दाल. १६. १०.१४) निस्पृहता से अपना काम यथाधिकार जिस प्रकार किया करते हैं, उसे देखकर सर्वसाधारण लोग अपना अपना व्यवहार करना सील क्योंकि बिना किये कुछ भी नहीं होता" (दास. १९. १०.२५, ५२.६.६, १७.३) और अन्तिम दशक (२०.१.२६) में उन्होंने कर्म के सामव्य का मति की तारक शक्ति के साथ पूरा पूरा नेल इस प्रकार का दिया है- हलचल में तामन्य है। जो करेगा वही पावेगा। परंतु उसमें भगवान् का अधिष्ठान चाहिये। गीता के आठवें अध्याय में अर्जुन को जो यह उपदेश ळ्यिा गया है कि " मामनुस्मर युद्ध च" (नी. ८.७)-नित्य मेरा सरण कर और युद्ध कर-सका तात्म्य, और छठवें अध्याय के अन्त में जो यह कहा है कि कर्मयोगियों में भी भकिमान