भक्तिमार्ग। ४३७ श्री है" (गी. ६.४७) उसका भी तात्पर्य, वही है कि जो रामदास स्वामी के उक्त वचन में है। गीता के अठारहवें अध्याय में भी भगवान ने यही कहा है- यतः वृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् । स्वकर्मणा तमभ्यर्य सिद्धि विंदति मानवः ।। "जिसने इस सारे जगत को उत्पा किया है उसकी, अपने स्वधमांनुरूप निष्काम- कर्माचरण से (न कि केवल याचा से प्रथया पुष्पों से) पूजा करके मनुष्य सिद्धि पाता है" (जी. १८.४६)। अधिक क्या कहें! इस श्लोक का और समस्त गीता का भी भावार्य यही है, कि स्वधर्मानुरूप निष्काम कर्म करने से सर्वभूतान्त- गंत विराटरूपी परमेश्वर की एक प्रकार की भक्ति, पूजा या उपासना ही हो जाती है। ऐसा कहने से कि " अपने धर्मानुरूप कमी से परमेघर की पूजा करो" यह नहीं समझना चाहिये, कि "श्रवणां कीर्तनं विनोः" इत्यादि नवविधा भक्ति गीता को मान्य नहीं। परन्तु गीता का कपन है, कि कमी को गौण समझकर उन्हें छोड़ देना और इस नवविधा भक्ति में ही विलकुल निमा हो जाना उचित नहीं है। शासनः प्राप्त अपने सब कमी को यथोचित रीति से अवश्य करना ही चाहिये। उन्हें "स्वयं अपने "लिये समझकर नहीं, किन्तु परमेघर का स्मरण कर इस निर्मम बुद्धि से करना चाहिये, फि" ईश्वर-निर्मित सृष्टि के संग्रहार्थ उसी के ये सब फर्म है" ऐसा करने से कर्म का लोप नहीं होगा, उलटा इन कमी से ही परमेघर की सेवा, भक्ति या उपासना हो जायगी, इन कर्मों के पाप-पुण्य के भागी इमनांगे और अंत में सद्गति भी मिल जायगी। गीता के इस सिद्धान्त की और दुर्लक्ष्य करक, गीता के भक्तिप्रधान टीकाकार अपने अन्यों में यह भावार्य यतलाया करते हैं, कि गीता में भक्ति ही को प्रधान माना है और फर्म को गोगा। परन्तु संन्यासमार्गीय टीकाकारों के समान भक्तिप्रधान टीकाकारों का यह तत्प- यर्थि भी एकपक्षीय है । गीता-प्रतिपादित भकिमार्ग कर्मप्रधान है और उसका मुख्य ताव यह है, कि परमेयर की पूजा न केवल पुप्पी से या चाचा से ही होती है, किन्तु वह स्वधर्मात निष्काम-कर्मों से भी होती है. और ऐसी पूजा प्रत्येक मनुष्य को अवश्य करनी चाहिये । जब कि फर्ममय भक्ति का यह तत्व गीता के अनुसार अन्य किसी भी स्थान में प्रतिपादित नहीं हुआ है, तब इसी तत्य को गीता- प्रतिपादित भरिमार्ग का विशंप लक्षण कहना चाहिये। इस प्रकार कर्मयोग की दृष्टि से ज्ञान-मार्ग और भक्ति-मार्ग का पूरा पूरा मेल ययपि हो गया. तथापि ज्ञान-मार्ग से भक्ति मार्ग में जो एक महत्व की विशेषता है उसका भी अब अंत में स्पष्ट रीति से वर्णन हो जाना चाहिये । यह तो पहले ही कह चुके हैं, कि ज्ञानमार्ग केवल बुद्धिगम्य होने के कारगा अल्पबुन्निवाले सामान्यजनों के लिये रेशमय है और भक्तिमार्ग के श्रद्धा-मूलक. प्रेमगन्य तथा प्रत्यक्ष होने के कारगा उसका आचरण करना सब लोगों के लिये सुगम है । परन्तु देश के सिवा ज्ञानमार्ग में एक और भी अड़चन है। जैमिनि की मीमांसा, या
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४७६
दिखावट