भक्तिमार्ग। ४३६ धंदे पर, व्यवमाय पर या जाति पर अवलम्बित नहीं, किन्तु सपंथा उसके अन्तःकरण ही शुद्धता पर प्रवलम्बित होती है - और यही भगवान् का अभिप्राय मी ई 1 इस प्रकार किसी समाज के सय लोगों के लिये मौत के दरवाजे खोल देने से उस समाज में गो एक प्रकार की दिलना जागृति उत्पर होती है, उसका स्वरूप महा- राष्ट्र में भागवत-धर्म के इतिहास से भली भांति देव पड़ता है। परमेयर यो क्यारखी, क्या शंढाल, क्या माणगा सभी समान हैं, "व भाव का भूसा ई"-नप्रतीक का, न फालेभारे वर्ग का, और न न्ची-पुरुष मादि पापाक्षण-चांडाल आदि मेदों का ही। साथ तुकाराम का इस विषय का अभिमाय, इस हिन्दी पद से प्रगट हो जायगा- क्या द्विजाति क्या शूद्र ऐश को वेश्या भी मज सकती है, अपची को भी भक्तिभाव में शुचिता कब तज सकती। अनुभव से कहता हूं, मैंने उसे कर लिया बस में जो चाहे सो प्रिय प्रेम से अमृत भरा है इस रस में ॥ अधिक पया कह ! गीता शास्त्र का भी यह सिद्धान्त है कि " मनुष्य कैसा ही दुरा- चारी क्यों न हो, परन्तु यदि अन्त काल में भी वह भानन्य भाव से भगवान् की शरण में जाये तो परसंचर उसे नहीं भूलता" (गी. ६.३०; और ८.५-८ देसो) उपच में वेश्या' शन्द (जो सानु गुकाराम के मूलवचन के आधार से रखा गया है) को देखकर पवित्रता का ढोंग करनेवाले बहुतेरे विद्वानों को कदाचित पुरा लगे । पशु सघ यात तो यह है कि ऐसे लोगों को सशा धमताप मालूम ही नहीं। न केवल हिन्द-धर्म में किन पु-धर्म में भी यही सिद्धान्त स्वीकार किया गया (मिलिन्दन. ३. ७.२) । उनके धर्म ग्रंथों में ऐसी कया है, लियुद्ध मे धाम्रपाली नामक किसी पेश्या को और भगुलीमाल नाम के चौर को दीक्षा दी थी । ईसाइयों के धर्म-प में भी यह वर्णन है, फिकाइस्ट के साथ जो दो चोर मूली पर चढ़ाये गये थे उनमें से एक चोर मृत्यु के समय काइस्ट की शरण्य में गया और क्राइस्ट ने उसे सहति दी (ल्युक. २३. ४२ और ५३)। स्वयं फ्राइस्ट ने भी एक स्थान में कहा है कि हमारे धर्म में श्रद्धा रखनेवाली वेश्याएँ मुरू हो जाती हैं (मेय्यू. २१.३१, स्यूक. ७. ५०) । यह बात दसवें प्रकरण में हम यतजा चुके हैं, कि अध्यात्मशाख की टि से भी यही सिद्धान्त निप्पा होता है। परंतु यह धर्मताप शानतः यद्यपि निर्विवाद है तथापि जिसका सारा जन्म दुराचरण में ही व्यतीत हुआ है उसके संतःकरण में केवल मृत्यु के समय ही धानन्य भाव से भगवान् का सरण करने की पुदि फैसे जागृत रह सकती है? ऐसी अवस्था में अंततः काल की बेदनाओं को सहते हुए, केवल यन्त्र के समान एक बार 'रा' कहकर और कुछ देर से 'म' कहकर मुंह खोलने और यंद करने के परिश्रम के सिवा कुछ अधिक लाभ नहीं होता। इसलिये भगवान् ने सय लोगों को निश्चित रीति से यही कहा है कि न केवल नृत्यु फे समय ही, किन्तु सारे जीवन भर सदैव मेरा स्मरण मन में रहने दो और स्वधर्म
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