४४० गीतारहस्य अथवा फर्मयोगशाख । के अनुसार अपने सब व्यवहारों को परमेश्वरार्पण घुद्धि से करते रहो, फिर चाहे तुम किसी भी जाति के रहो तो भी नुम कमों को करते हुए ही मुक हो जाओगे, (गी. ६. २६-२८ और ३०-३४ देखो)। इस प्रकार उपनिषदों का ब्रह्मात्मैक्यज्ञान आवालवृद्ध सभी लोगों के लिये सुलम तो कर दिया गया है; परन्तु ऐसा करने में न तो व्यवहार का लोप होने. दिया है, और न वर्ण, आप्रम, जाति-पाति अथवा स्त्री-पुरुष आदि का कोई भेद रखा गया है । जब हम गीता-प्रतिपादित भक्तिमार्ग की इस शकि अथवा समता की और ध्यान देते हैं, तब गीता कि अन्तिम अध्याय में भगवान्ने प्रतिज्ञापूर्वक गीताशास्त्र का जो उपसंहार किया है उसका मम प्रगट हो जाता है। वह ऐसा है:-"सव धर्म छोड़ कर मेरे अकेले की शरण में आ जा, मैं तुमे लब पापों से मुक्त करूंगा, घबराना नहीं। " यहां पर धर्म शब्द का उपयोग इसी ज्यापक अर्थ में किया गया है. कि सब व्यवहारों को करते हुए भी पाप-पुण्य से अलिप्त रहकर परमेश्वरप्रासिरूपी आत्मश्रेय जिस मार्ग के द्वारा सम्पा. दन किया जा सकता है वही धर्म है । अनुगीता के गुरुशिष्यसम्बाद में ऋषियों ने ब्रह्मा से यह प्रश्न क्रिया (अश्व. १९), कि अहिंसाधर्म, सत्यधर्म, व्रत, तथा उपवास, ज्ञान, यज्ञ-याग, दान, कर्म, संन्यास आदि जो अनेक प्रकार के मुक्ति के साधन अनेक लोग बतलाते हैं, उनमें से सच्चा साधन कौन है? और शान्तिपर्व के (३५८) च्छवृत्ति-उपाख्यान में भी यह प्रश्न है कि गाईस्थ्य- धर्म, चानप्रस्य-धर्म, राजधन, मातृपितृ-सेवाधर्म, क्षत्रियों का रणांगण में मरण, ब्राह्मणों का स्वाध्याय, इत्यादि जो अनेक धर्म या स्वर्गप्राप्ति के साधन शास्त्रों ने बतलाये हैं, उनमें से ग्राल धर्म कौन है? ये भिन्न मिस धर्ममार्ग या धर्म दिखने में तो परस्पर-विल्द मालूम होते हैं, परन्तु शास्त्रकार इन सब प्रत्यक्ष मार्गों की योग्यता को एकही समझते हैं, क्योंकि समस्त प्राणियों में साम्यवृद्धि रखने का जो अन्तिम साध्य है वह इनमें से किसी भी धर्म पर प्रीति और श्रद्धा के साथ मन को एकमात्र किये बिना प्राप्त नहीं हो सकता । तथापि, इन अनेक मागों की अथवा प्रतीक- उपासना की, झंझट में फंसने से मन घबरा जा सकता है। इसलिये अकेले अर्जुन को ही नहीं, किन्तु उसे निमित्त करके सब लोगों को, भगवान् इस प्रकार निश्चित आवासन देते हैं कि इन अनेक धन-मागों को छोड़ कर "तू केवल मेरी शरण में आ, मैं तुझे समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा; ढर मत ।” साधु तुकाराम भी सब धर्मा का निरसन करके अन्त में भगवान् से यही माँगते हैं कि:- चतुराई चेतना सभी चूल्हे में नावे, बस मेरा मन एक ईश-चरणाश्रय पावे । आग लगे याचार-विचारों के उपचय में, उस विभु का विश्वास सदाढ़ रहे हृदय मी निश्चयपूर्वक उपदेश की या प्रार्थना की यह अन्तिम सीमा हो चुकी । श्रीमद्भगवद्गीता रूपी सोने की थाली का यह भक्तिरूपी अन्तिम कौर है- यही प्रेमग्रास है। इसे पा चुके, अप आगे चलिये ।
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