पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४८

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विषयप्रवेश। । इस समय किस रूपान्तर से प्रचलित है ? इत्यादि प्रक्षों का विचार भागे चल कर किया जायगा। यह मालूम हो गया कि स्वयं महाभारतकार के मतानुसार गीता का क्या तात्पर्य है। भय देखना चाहिये कि गीता के भाग्यकारों और टीकाकारों ने गीता का क्या तात्पर्य निश्चित किया है। इन भाप्यों वपाटीकाओं में प्राजकल श्री. शंकराचार्य कृत गीता-भाष्य प्रति प्राचीन अन्य माना जाता है । यद्यपि इसके भी पूर्व गीता पर अनेक भाप्य भौर टीकार लिखी जा चुकी थी तथापि वे अब उपलब्ध नहीं भौर इसी लिये जान नहीं सकते कि महाभारत के रचना-काज से शंकरा- चार्य के समय तक गीता का अर्थ किस प्रकार किया जाता था। तथापि शांकर- भाग्य ही में इन प्राचीन टीकाकारों के मतों का जो उल्लेख है (गी. शांभा.प्र.२ और ३ का उपोद्घात देखो), बससे साफ़ साफ़ मालूम होता है कि शंकर- चार्य के पूर्वकालीन टीकाकार, गीता का अर्थ, महाभारत-कर्ता के अनुसार ही ज्ञानकर्म-समुच्चयात्मक किया करते थे। अर्थात् उसका यह प्रवृत्ति-विषयक अर्थ लगाया जाता था कि, ज्ञानी मनुष्य को ज्ञान के साथ साथ मृत्यु पर्यन्त स्वधर्म- विहित कर्म करना चाहिये । परन्तु वैदिक कर्मयोग का यह सिद्धान्त शंकराचार्य को मान्य नहीं था, इसलिये उसका खंडन करने और अपने मत के अनुसार गीता का तात्पर्य बताने ही के लिये उन्होंने गीता भाष्य की रचना की है। यह बात उक्त भाष्य के प्रारंभ के उपोद्घात में स्पष्ट रीति से कही गई है। भाष्य ' शब्द का अर्थ भी यही है। ' और 'टीफा' का बहुधा समानार्थी उपयोग होता है, परन्तु सामान्यतः टीका ' मूल मन्ध के सरल अन्वय और उसके सुगम अर्थ करने ही को कहते हैं। भाष्यकार इतनी ही बातों पर संतुष्ट नहीं रहता। वह उस अन्य की न्याययुक्त समालोचना करता है, अपने मतानुसार उसका तात्पर्य चतलाता है और उसी के अनुसार वह यह भी बतलाता है कि ग्रन्थ का अर्थ कैसे लगाना चाहिये । गीता के शांकरभाष्य का यही स्वरूप है। परन्तु गीता के तात्पर्य के विवेचन में शंकराचार्य ने जो भेद किया है उसका कारण जानने के पहले थोडासा पूर्वकालिक इतिहास भी यहाँ पर जान लेना चाहिये । वैदिक धर्म केवल तान्त्रिक धर्म नहीं है। उसमें जो गूढ तत्व हैं उनका सूक्ष्म विवेचन प्राचीन समय ही में उपनिपदों में हो चुका है। परन्तु ये उपनिषद भिन्न भिन्न ऋषियों के द्वारा भिश भिस समय में बनाये गये हैं, इसलिये उनमें कहाँकहाँ विचार-विभिन्नता भी भा गई है। इस विचार-विरोध को मिटाने के लिये ही बादरायणाचार्य ने अपने वेदान्तसूत्रों में सम उपनिपदों की विचारेक्यता कर दी है और इसी कारण से वेदान्तसूत्र भी, उपनिषदों के समान ही, प्रमाण माने जाते हैं। इन्हों वेदान्तसूत्रों का दूसरा नाम 'ग्रहासूत्र' अथवा 'शारीरकसूत्र' है । तथापि वैदिक धर्म के तत्वज्ञान का पूर्ण विचार इतने से ही नहीं हो सकता। क्योकि उपनिपदों का ज्ञान प्रायः वैराग्यविषयक अर्थात् निवृत्तिविषयक है, और वेदान्तसूत्र तो सिर्फ उपनिपदों भाग्य