गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाख । यतीनां चापि यो धर्मः स ते पूर्व नृपोत्तम । कथितो हरिगीता समासविधिकरिणतः॥ भयात् है राजा! यतियों भर्थात संन्यासियों के निवृत्तिमार्ग का धर्म भी सुझ पहले भगवनीता में संक्षित रीति से भागवतधर्म के सायवतला दिया गया है। परन्तु यद्यपि गीता में प्रवृत्तिधर्म के साथ ही यतियों का निवृत्तिधर्न भी बतलाया गया है, तथापि मनु-इक्ष्वाकु इत्यादि गीताधर्म की जो परंपरा गीता में दी गई है वह यतिधर्म को लागू नहीं हो सस्ती, वह केवल मागवतधर्म ही परंपरा से मिलती है। सारांश यह है कि उपर्युक्त वचनों से महामारतकार का यही आमप्राय जान पड़ता है कि गीता में अर्जुन को जो उपदेश जिया गया है वह, विशेष करके मनु-इक्ष्वाकु इत्यादि परंपरा से चले हुए, प्रवृत्ति-विपत्रक भागवतधर्म ही का ई और उसमें निवृत्ति-विषयक यतिधर्म का जो नित्पण पाया जाता है वह केवन भानुपंगिक है। पृथु, प्रियवत और प्रल्हाद आदि मतों की कयात्रों से, तथा भागवत में दिये गये निष्काम कर्म के वर्णनों से (भागवत.४.२२.५१,५२७. १०. २३ और १.४.६ देखो) यह भली भांति मालूम हो जाता है कि महाभारत का प्रवृत्ति-विषयक नारायणीय धर्म और भागवतपुराण का भागवतधर्म, ये दोनों, आदि में एक ही है। परन्तु मागवतपुराण का मुख्य उद्देश यह नहीं है कि वह भागवतधर्म के कर्मयुद्ध-प्रवृत्ति तत्व का समर्थन करे । यह समर्थन, महाभारत में और विशेष करके गीता में किया गया है। परन्तु इस समर्थन के समय भागवत धर्मीय भक्ति का यथोचित रहस्य दिखलाना व्यालजी भूल गये थे। इसलिये भागवत के आरंभ के अध्यायों में लिखा है कि (भागवत. १.५.२) मिना भक्ति के केवल निष्काम कर्म व्यर्थ है यह सोच कर, और महाभारत की एक न्यूनता को पूर्ण करने के लिये हो, भागवतपुराण की रचना पीछे से की गई । इससे भागवत पुराण का मुख्य उद्देश स्पष्ट रीति से मालूम हो सकता है। यही कारण है कि भागवत में अनेक प्रकार की हरिकथा कह कर मागवतधर्म की भगवझक्ति के माहात्म्य का नेता विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है वैसा भागवतधर्म विषयक अंगों का विवचन उसमें नहीं किया गया है। अधिक श्या, मागवतकार का यहाँ तक कहना है, कि बिना मक्ति के सब र्मयोग वृया ई (भाग.१.५.३४) । अतएव गीता के तात्पर्य का निश्चय करने में जिस महामारत में गीता कही गई ईसी नारायणीयोपाख्यान का जैसा उपयोग हो सकता है वैसा, मागवर- धर्मीय होने पर भी, भागवतपुराण का उपयोग नहीं हो सकता, क्योंकि वह केवन भकि प्रधान है। यदि उसका कुछ उपयोग किया भी जाय तो इस बात पर मी ध्यान देना पड़ेगा कि महामारत और मागवतपुराण के उद्देश और रचनाकाल मित मिन है। निवृत्तिविषयक यतिधर्म और प्रवृत्तिविषयक भागवतधर्म का भूल स्वरूप प्या है। इन दोनों में यह भेद क्यों है ? मूल भागवतधर्म
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