पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४८०

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चौदहवाँ प्रकरण । गीताध्याय-संगति । प्रवृत्तिलक्षणं धर्म पिनारायणोऽब्रवीत् । महाभारत, शांति. २१७.२॥ अब तक किये गये पियेचन से देख पड़ेगा कि भगवद्गीता में भगवान् के द्वारा 'गाये गये उपनिपद में यह प्रतिपादन किया गया है, कि कर्मों को करते हुए ही अध्यात्म-विचार से या भक्ति से सामक्यरूप साम्यशुद्धि को पूर्णतया प्राप्त कर लेना, और उसे प्राप्त कर लेने पर भी संन्यास लेने की झंझट में न पड़ संसार में शाखतः प्राप्त सत्र कमी को केवल अपना कर्तव्य समझ फर करते रहना ही, इस संसार में मनुष्य का परमपुरपार्य भयवा जीवन व्यतीत करने का उत्तम मार्ग है। परन्तु जिस क्रम से हमने इस प्रन्य में उक्त अर्य का पर्णन किया है, उसकी अपेक्षा गीता अन्य का क्रम भिन्न है, इसलिये अय यह भी देखना चाहिये कि भगवद्गीता में इस विषय का वर्णन किस प्रकार किया गया है। किसी भी विषय का निरूपण दो रीतियों से किया जाता है। एक शाखीय और दूसरी पौराणिक । शाखीय पद्धति यह है कि जिसके द्वारा तर्कशास्त्रानुसार साधक-बाधक प्रमाणों को कमसहित उपस्थित करके यह दिखला दिया जाता है, कि सब लोगों की समझ में सहज ही आ सकनेवाली बातों से किसी प्रतिपाय विषय के मूलतत्व किस प्रकार निप्पल होते हैं। भूमितिशास्त्र इस पद्धति का एक अच्छा उदाहरण है; और न्यायसूत्र या पेदान्तसूत्र का उपपादन भी इसी वर्ग का है। इसी लिये भग- चङ्गीता में जहाँ प्रससून यानी वेदान्तसून का उलेख किया गया है, यहाँ यह भी वर्णन है कि उसका विषय हेतुयुक्त और निश्चयात्मक प्रमागणों से सिद्ध किया चलसूत्ररदेशव तिमनिर्विनिश्चितैः " (गी. १३. ४)। परन्तु, भगवद्गीता का निरूपण सशास भले हो, तथापि यह इस शास्त्रीय पद्धति से नहीं किया गया है। भगवद्गीता में जो विषय है उसका वर्णन, अर्जुन और श्रीकृष्ण के सम्बादरूप में, अत्यन्त मनोरंजक और सुलभ रीति से किया गया है। इसी लिये प्रत्येक स्पध्याय के अंत में " भगवद्गीतास्पानिपत्सु ब्रह्मवियायां योगशास्त्रे " कहकर, •"नारायण ऋषि ने धर्म को प्रतिप्रधान यतलाया है।" नर भोर नारायण नामक ऋषियों में से ही ये नारायण शापि है। पहले बतला नुके है कि इन्हीं दोनों के अवतार श्रीकृष्ण और अर्जुन थे। इसी प्रकार महाभारत या वर वनन भी पहले उद्धृत किया गया है जिससे यह मालूम होता है कि गीता में नारायगीय धर्म का ही प्रतिपादन किया गया है। 46 गया है- -