पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४८२

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गतिाध्याय-संगति। ४४३ देखा है। इस अड़चन को हटाने के लिये हमने अपनी बुद्धि के अनुसार गीता के प्रतिपाद्य विपयों का शासीय प्रम पाँध कर अब तक विवेचन किया है। अब यहाँ इतना और पतला देना चाहिये, कि ये ही विपय श्रीकृष्ण और अर्जुन के सम्भापण में अर्जुन के प्रश्नों या शंकाओं के अनुरोध से, कुछ न्यूनाधिक होकर कैसे उपस्थित हुए हैं। इससे यह विवेचन पूरा हो जायगा और अगले प्रकरण में सुगमता से सय विपयों का उपसंहार कर दिया जायगा। पाठकों को प्रथम इस बार ध्यान देना चाहिये कि जय हमारा देश हिंदुस्थान ज्ञान, वैभव, यश और पूर्ण स्वराज्य के सुख का अनुभव ले रहा था, उस समय एक सर्पज्ञ, महापराक्रमी, यशस्वी और परमपूज्य ज्ञानय ने दूसरे चानिय को-जो महान् धनुधारी था-क्षात्रधर्म के स्थकार्य में प्रवृत्त करने के लिये गीता का उपदेश किया है। जैन और बौद्ध धर्मों के प्रवर्तक महावीर और गौतम बुद्ध भी क्षत्रिय ही घे; परन्तु इन दोनों ने वैदिक धर्म के केवल संन्यासमार्ग को अंगीकार कर धानिय मादि सय वगणों के लिये संन्यास-धर्म का दरवाज़ा खोल दिया था। भगवान् श्रीकृष्ण ने ऐसा नहीं किया, क्योंकि भागवत-धर्म का यह उपदेश है कि न केवल शानियों को किन्तु मालगों को भी निवृत्ति-मार्ग की शान्ति के साथ साथ निष्काम बुद्धि से सब कर्म मामरणान्त करते रहने का प्रयत्न करना चाहिये । किसी भी उपदेश को लीजिये, आप देखेंगे कि उसका कुछ न कुछ कारण अवश्य रहता ही है। और उपदेश की सफलता के लिये, शिष्य के मन में उस उपदेश का ज्ञान प्राप्त कर लेने की इच्छा भी प्रथम ही से जागृत रहनी चाहिये । अतएव इन दोनों यातों का खुलासा करने के लिये ही, ध्यासजी ने गीता के पहले अध्याय में इस बात फा विस्तारपूर्वक वर्णन कर दिया है, कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह उपदेश क्यों दिया है। कौरय और पांढयों की सेनाएँ युर के लिये तैयार होकर कुरुक्षेत्र पर खड़ी हैं। प्रय योड़ी ही देर में लड़ाई का मारम्भ होगा; इतने में अर्जुन के कहने से श्रीकृष्ण ने उसका रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले जाकर खड़ा कर दिया और अर्जुन से कहा, कि "तुझे जिनसे युद्ध करना है, उन भीम द्रोण आदि को देख।" तय अर्जुन ने दोनों सेनाओं की ओर दृष्टि पहुँचाई और देखा कि अपने ही याप, दादे, फाका, प्राजा, मामा, बंधु, पुत्र, नाती, स्नेही, प्राप्त, गुरु, गुरुगंधु आदि दोनों सेनाओं में खड़े हैं और इस युद्ध में सब लोगों का नाश होनेवाला है! लड़ाई कुछ एकाएक उपस्थित नहीं हुई थी। लड़ाई करने का निश्चय पहले ही हो चुका था और यचुत दिनों से दोनों ओर की सेनामों का प्रबन्ध हो रहा था । परन्तु इस अापस की लड़ाई से होनेवाले कुलतय का प्रत्यक्ष स्वरूप जय पहले पहल अर्जुन की नज़र में आया, तब उसके समान महायोद्धा के भी मन में विषाद उत्पस दुआ और उसके मुख से ये शब्द निकल पड़े, "ओह ! बाज इंम लोग अपने ही कुज का भयंकर आय इसी लिये फरने वाले हैं न, कि राज्य इमों को मिले; इसकी अपेक्षा भिक्षा माँगना पया पुरा है? " और, इसके बाद उसने श्रीकृष्ण से कहा,