४४४ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । शत्रुही चाहे मुझे जान से मार डाले, इसकी मुझे परवा नहीं; परन्तु त्रैलोक्य के राज्य के लिये भी मैं पितृहत्या, गुरुहत्या, बंधुहत्या या कुलक्ष्य के समान घोर पातक करना नहीं चाहता।" उसकी सारी देह थर-थर काँपने लगी; हाथ-पैर शिथिल हो गये; मुंह सूख गया और खिन्नवदन हो अपने हाथ का धनुपवाण फेंककर वह वेचारा रथ में चुपचाप बैठ गया । इतनी कथा पहले अध्याय में है। इस अध्याय को "अर्जुन-विपाद-योग" कहते हैं। क्योंकि यद्यपि पूरी गीता में ब्रह्मविद्यान्तर्गत (कर्म-) योगशास्त्र नामक एकही विषय प्रतिपादित हुआ है, तो भी प्रत्येक अध्याय में जिस विषय का वर्णन प्रधानता से किया जाता है, उस विषय को इस कर्म-योग-शास्त्र का ही एक भाग समझना चाहिये और ऐसा समझ- कर ही प्रत्येक अध्याय को उसके विपत्रानुसार अर्जुन-विपाद-योग, सांख्ययोग, कर्मयोग इत्यादि मिन भिन्न नाम दिये गये हैं। इन सब योगों को एकत्र काने से "ब्रह्मविद्या का कर्म-योग-शास्त्र" हो जाता है। पहले अध्याय की कथा का महत्व हम इस अन्य के प्रारम्भ में कह चुके हैं। इसका कारण यह है कि जब तक हम उपस्थित प्रश्न के स्वरूप को ठीक तौर से जान न लें, तब तक उस प्रभ का उत्तर भी भली माँति हमारे ध्यान में नहीं आता। यदि कहा जाय कि गीता का यही तात्पर्य है कि " सांसारिक कर्मों से निवृत्त होकर भगवद्भजन करो, या संन्यास ले लो।" तो फिर भर्जुन को उपदेश करने की कुछ आवश्यकता हीन ची, क्योंकि वह तो लड़ाई का घोर कर्म छोड़ कर भिक्षा मांगने के लिये आप ही भाप तैयार हो गया था। पहले ही अध्याय के अन्त में श्रीकृष्ण के मुख से ऐसे राध लोक कहलाकर गीता की समाति कर देनी चाहिये थी, कि "वाइ! क्या ही अच्छा कहा! तेरी इस उपरति को देख मुझे भानन्द मालूम होता है! चलो, हम दोनों इस कर्ममय संसार को छोड़ संन्यासाश्रम के द्वारा वा भक्ति के द्वारा अपने आत्मा का कल्याण कर लें!" फिर, इधर लड़ाई हो जाने पर, व्यासजी उसका वर्णन करने में तीन वर्ष तक (ममा. आ.६२. ५२) अपनी वाणी का भले ही दुरुपयोग करते रहते; परन्तु उसका दोप बेचारे अर्जुन और श्रीकृष्ण पर तो आरोपित न हुआ होता । हाँ, यह सच है, कि कुरुक्षेत्र में जो सैकड़ों महारथी एकत्र हुए थे, वे अवश्य ही अर्जुन और श्रीकृष्ण का उपहास करते । परन्तु जिस मनुष्य को अपने प्रात्मा का कल्याण कर लेना है, वह ऐसे उप- हास की परवा ही क्यों करता? संसार कुछ भी कहे; उपनिपदों में तो यही कहा है, कि " यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रबजेत् " (जा. १) अर्थात् जिस पण उपरति हो उसी क्षण संन्यास धारण करो; विलम्ब न करो। यदि यह कहा जाय कि अर्जुन की उपरति ज्ञानपूर्वक न थी, वह केवल मोह की थी तो भी वह थी तो उपरति ही बस, उपरति होने से ही प्राधा काम हो चुका; अव मोह को हटा कर उसी उपरति को पूर्णज्ञानमूलक कर देना भगवान के लिये कुछ असम्भव बात न थी। भक्ति मार्ग में या संन्यास-मार्ग में भी ऐसे अनेक उदाहरण है, कि जब कोई किसी अर्थ का एक
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४८३
दिखावट