. ४५० गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । परन्तु यह विवेचन तीसरे अध्याय में पूरा नहीं हुआ, इसलिये चौथा अध्याय भी वसी विवेचन के लिये प्रारम्भ किया गया है । किसी के मन में यह शंका न भाने पाये, कि अब तक किया गया प्रतिपादन केवल अर्जुन को युद्ध में प्रवृत्त करने के लिये ही नूतन रचा गया होगा; इसलिये अध्याय के आरम्भ में इस कर्मयोग की अर्थात् भागवत या नारायणीय धर्म की त्रेतायुगवाली पल्परा बतलाई गई है। जब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, कि आदी यानी युग के प्रारम्भ में मैंने ही यह कर्म- योग-मार्ग विवस्वान् को, विवस्वान् ने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को बतलाया था, परन्तु इस बीच में यह नष्ट हो गया था, इसलिये मैंने यही योग(कर्मयोगमार्ग) तुझे फिर से बतलाया है तब अर्जुन ने पूछा कि श्राप विवस्वान् के पहले कैसे होंगे? इसका उत्तर देते हुए भगवान् ने यतलाया है कि साधुनों की रक्षा, दुष्टों का नाश पार धर्म की संस्थापना करना ही मेरे अनेकं अवतारों का प्रयोजन है एवं इस प्रकार लोक-संग्रहकारक कर्मों को करते हुए भी उनमें मेरी कुछ आसक्ति नहीं है, इसलिये मैं उनके पाप-पुण्यादि फलों का भागी नहीं होता। इस प्रकार कर्मयोग का समर्थन करके और यह उदाहरण देकर, कि प्राचीन समय में जनक आदि ने भी इसी तत्त्व को ध्यान में ला कमी का आचरण किया है, भगवान् ने अर्जुन को फिर यही उपदेश दिया है, कि तू भी वैसे ही कर्म कर।' तीसरे अध्याय में मीमांसकों का जो यह सिद्धान्त बतलाया गया था, कि " यज्ञ के लिये किये गये कर्म वन्धक नहीं होते," उसीको अब फिर से बतलाकर 'यज्ञ' की विस्तृत और व्यापक व्याख्या इस प्रकार की है केवल तिल और चावल को जलाना अथवा पशुओं को मारना एक प्रकार का यज्ञ है सही, परन्तु यह द्रव्यमय यज्ञ हलके दर्ने का है और संयमाग्नि में काम-क्रोधादिक इन्द्रियवृत्तियों को जलाना अथवा 'न नम' कहकर सब कर्मों को ब्रह्म में स्वाहा कर देना ऊंचे दर्जे का यज्ञ है। इसलिये अब अर्जुन को ऐसा उपदेश किया है, कि त स ऊचे दो के यज्ञ के लिये फलाशा का त्याग करके कर्म कर । मीमांसकों के न्याय के अनुसार यज्ञार्थ किये गये कर्म यदि स्वतंत्र रीति से बंधक न हॉ, तो भी यज्ञ का कुछ न कुछ फल बिना प्राप्त हुए नहीं रहता । इसलिये यज्ञ भी यदि निष्काम-बुद्धि से ही किया जावे, तो उसके लिये किया गया कर्म और स्वयं यज्ञ दोनों बंधक न होंगे । अन्त में कहा है कि साम्य बुद्धि उसे कहते हैं जिससे यह ज्ञान हो जाये, कि लव प्राणी अपने में या भगवान् में हैं । जब ऐसा ज्ञान प्राप्त हो जाता है, तभी सब कर्म भस्म हो जाते हैं और कर्ता को उनकी कुछ वाधा नहीं होती । “सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते"-सव कर्मों का लय ज्ञान में हो जाता है। कर्म स्वयं वन्धक नहीं होते, बन्ध केवल अज्ञान से उत्पन्न होता है । इसलिये अर्जुन को यह उपदेश दिया गया है, कि अज्ञान को छोड़ कर्म योग का आश्रय कर और लड़ाई के लिये खड़ा हो जा । सारांश, इस अध्याय में ज्ञान की इस प्रकार प्रस्तावना की गई है, कि कर्म-योग-मार्ग की सिद्धि के लिये भी साम्यत्रुद्धि-रूप ज्ञान की.धावश्यकता है।
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