गीताध्याय-संगति । कर्मयोग की भावश्यकता क्या हैया कर्म क्यों किये जावें-इसके कारणों क विचार तीसरे और चौथे अध्याय में किया गया है सही; परन्तु दूसरे अध्याय में सांख्य ज्ञान का वर्णन करके कर्मयोग के विवेचन में भी वारवार कर्म की अपेवावुद्धि ही श्रेष्ट यतलाई गयी है, इसलिये यह बतलाना अय अत्यन्त आवश्यक है कि इन दो मागी में कौनसा मार्ग घेध है। क्योंकि यदि दोनों मार्ग एफसी योग्यता के कहे जाय, तो परिणाम यह होगा कि जिसे जो मार्ग अच्छा लगेगा वह उसी को अंगीकार कर लेगा-केयन कर्मयोग को ही स्वीकार करने की कोई यावश्यकता नहीं रहेगी । अर्जुन के मन में यही शंका उत्पन्न हुई, इसलिये उसने पानवें अध्याय के भारम्भ में भगवान् से पूछा है, कि “सांस्य और योग दोनों निष्ठामों को एकत्र करके मुझे उपदेश न कीजिये, मुझे केवल इतना ही निश्चयात्मक पतला दीजिये कि इन दोनों में श्रेष्ट मार्ग कौनसाई, जिससे कि मैं सहज ही उसके अनुसार पाय कर स।।" इस पर भगवान् ने स्पष्ट रीति से यह कह कर अर्जुन का सन्देश चूर कर दिया है, कि यद्यपि दोनों मार्ग निःश्रेयस्कर है अर्थात् एकसे ही मोक्षपद है, तथापि उनमें कम-योग की योग्यता अधिक है-“कर्मयोगो विशिष्यते" (५.२)। इसी सिद्धान्त को एढ़ करने के लिये भगवान् सौर भी कहते हैं, कि संन्यास या सांख्यनिष्ठा से जो मोत मिलता वही कर्मयोग से भी मिलता है। इतना ही नहीं, परन्तु कर्मयोग में जो निष्काग-युन्नि पतलाई गई है उसे बिना प्राप्त किये संन्यास सिद्ध नहीं होता; और जब यह प्राप्त हो जाती है तब योग- मार्ग से कर्म करते रहने पर भी प्रसमाप्ति अवश्य हो जाती है। फिर यह झगड़ा करने से क्या लाभ कि सांख्य और योग भित्र भित्र हैं? यदि हम चलना, योलना, देखना, सुनना, बास लेना इत्यादि संकड़ों कर्मों को छोड़ना चाहें तो भी चे नहीं छूटतेः इस दशा में कर्मों को छोड़ने का हठन कर उन्हें प्रसार्पणबुद्धि ले करते रहना ही बुद्धिमत्ता का मार्ग हैं। इसलिये तत्वज्ञानी पुरुप निष्काम युद्धि से कर्म करते रहते हैं और अन्त में उन्हीं के द्वारा मोक्ष की प्राति कर लिया करते हैं। ईश्वर तुमसे न यह कहता है कि कर्म करो, और न या कहता है कि उनका त्याग कर दो। यह सो सब प्रकृति की झोड़ा है और बन्धन मन का धर्म है। इसलिये जो मनुष्य समवृद्धि से अथवा 'सर्वभूतात्मभूतात्मा' होकर कर्म किया करता है, उसे उस कर्म की याधा नहीं होती। अधिक क्या कहें इस अध्याय के अन्त में यह भी कहा है कि जिसकी बुद्धि कुत्ता, चांसल, ग्रामण, गौ, हाथी इत्यादि के प्रति सम हो जाती है और जो सर्वभूतान्तर्गत प्रात्मा की एकता को पहचान कर अपने व्यवहार करने लगता है, उसे बैठे-बिठाये इसनिवाणरूपी मोक्ष प्राप्त हो जाता है-मोक्षप्राप्ति के लिये उसे कहीं भटकना नहीं पड़ता, वह लदा मुक्त ही है। छठे अध्याय में यही विषय आगे चल रहा है और उसमें कर्मयोग की सिद्धि के लिये थावश्यक समबुद्धि की प्राप्ति के उपायों का वर्णन है। पहले ही श्लोक में भगवान् ने अपना मत स्पष्ट पतला दिया है, कि जो मनुष्य कर्म-फल की नाशा न
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