गीताध्याय-संगति। ४५३ युद्ध के भयंकर परिणाम को प्रत्यक्ष एटि के सामने देखते हुए भी युद्ध ही करू ? और, यदि युद्ध ही करना पड़े तो उसके पाप से कैसे बचें ?-तब उसका समाधान ऐले अधूरे और अनिश्चित उत्तर से कमी हो ही नहीं सकता था, कि " ज्ञान से .मोच मिलता है और वह कर्म से भी प्रात हो जाता है और, यदि तेरी इच्छा हो तो भक्ति नाम की एक और तीसरी निशा भी है। " इसके अतिरिक्त, यह मानना भी ठीक न होगा, कि जब अर्जुन किसी एक ही निश्चयात्मक मार्ग को जानना चाहता है, तप सर्वन और चतुर श्रीकृपा उसके प्रक्ष के मूल स्वरूप का छोड़कर उसे तीन स्वतंत्र और विकल्पात्मक मार्ग बतला दें । सच बात तो यह है कि, गीता में 'कर्मयोग' और ' संन्यास ' इन्हीं दो निष्ठामों का विचार है (गी. ५.१); और यह भी साफ़ साफ पतला दिया है कि इनमें से कर्मयोग' ही अधिक श्रेयस्का है (गी. ५.२) । भक्ति की तीसरी निष्ठा तो कहीं बतलाई भी नहीं गई है। अर्थात् यह कपना साम्प्रदायिक टीकाकारों की मन-गढन्त है कि ज्ञान, कर्म और भक्ति तीन स्वतंत्र निष्ठा है। और उनकी यह समझ होने के कारण, कि गीता में केवल मोत के उपायों का ही वर्णन किया गया है, उन्हें ये तीन निठाणे कदाचित् भागवत से सूझी हो (भाग. ११.२०.६)। परन्तु टीका- कारों के ध्यान में यह पात नहीं साई, कि भागवत पुराण और भगवनीता का तात्पर्य एक नहीं है। यह सिद्धान्त भागवतकार को भी मान्य है कि केवल कमी से मौत की प्राप्ति नहीं होती, मोत के लिये ज्ञान की प्रावश्यकता रहती है। परन्तु इसके अतिरिक्त, भागवत पुराण का यह भी कथन है कि यद्यपि ज्ञान और नकार्य मोक्षदायक हों, तथापि ये दोनों (अर्थात् गीताप्रतिपादित निष्काम; कर्मयोग ) भक्ति के बिना शोभा नहीं देते- 'नकम्यमप्यच्युतभाववर्जितं न शोभते ज्ञानमल निरंजनम् ' (भाग. १२. १२. ५२ और १. २. १२) । इस प्रकार देखा जाय तो स्पष्ट प्रगट होता है, कि भागवतकार केवल भक्ति को ही सच्ची निष्ठा अर्थात् अन्तिम मोक्षप्रद स्थिति मानते हैं। भागवत का न तो यह कहना है कि भगवनको फो ईश्वरार्पण-युद्धि से कर्म करना ही नहीं चाहिये और न यह कहना है कि करना ही चाहिये । भागवत पुराण का यह सिर्फ कहना है, कि निष्काम-कर्म करो अपवान फरोये सब भफियोग के ही भित भिन्न प्रकार हैं (भाग. ३. २९.७-१८), भक्ति के सभाव से सब कर्मयोग पुनः संसार में अर्थात् जन्म-मृत्यु के चकर में सालनेवाले हो जाते हैं (भाग. १.५.३४, ३५) सारांश यह है कि भागयतकार का सारा दारमदार भक्ति पर ही होने के कारण उन्होंने निष्काम कर्मयोग को भी भक्तियोग में ही ढकेल दिया है और यह प्रतिपादन किया है कि अकेली भक्ति ही सची निष्टा है । परन्तु भक्ति ही कुछ गीता का मुख्य प्रतिपाय विषय नहीं है। इसलिये भागयत के उपर्युक्त सिद्धान्त या परिभाषा को गीता में घुसेड़ देना वैसा ही अयोग्य है, जैसा कि ग्राम में शरीफ़ की कलम लगाना | गीता इस यात को पूरी तरह मानती है, कि परमेश्वर के ज्ञान
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