पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । के सिवा और किसी भी अन्य उपाय से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, और इस ज्ञान की प्राप्ति के लिये भक्ति एक सुगम मार्ग है। परन्तु इसी मार्ग के विषय में प्रामह न कर गीता यह भी कहती है, कि मोक्षप्राप्ति के लिये जिस ज्ञान की आवश्यकता है उसकी प्राप्ति, जिसे जो मार्ग सुगम हो वह उसी मार्ग से कर ले । गीता का तो मुख्य विषय यही है, कि अन्त में अर्थात् ज्ञान-प्राप्ति के अनन्तरमनुष्य कर्म करे अथवा न करे । इसलिय, संसार में, जीवन्मुक्त पुरुषों के जीवन व्यतीत करने के जो दो मार्ग देख पड़ते हैं अर्थात् कर्म करना और कर्म छोड़ना-वहीं से गीता के उपदेश का आरम्भ किया गया है। इनमें से पहले मार्ग को गीता ने भागवतकार की नाई 'भक्तियोग' यह नया नाम नहीं दिया है, किन्तु नारायणीय धर्म में प्रचलित प्राचीन नाम ही अर्थात ईश्वरार्पणबुद्धि से कर्म करने को 'कर्मयोग' या 'कर्म- निष्ठा और ज्ञानोत्तर कर्मों का त्याग करने को 'सांख्य' या 'ज्ञाननिष्टा' यही नाम- गीता में स्थिर रखे गये हैं। गीता की इस परिभाषा को स्वीकर कर यदि विचार किया जाय तो देख पड़ेगा, कि ज्ञान और कर्म की वरावरी की, भक्तिनामक कोई तीसरी स्वतंत्र निष्टा कदापि नहीं हो सकती। इसका कारण यह है कि 'कर्म करमा' और 'न करना अर्थात् छोड़ना' (योग और सांख्य) ऐसे अस्तिनास्ति-रूप दो पक्षों के अतिरिक्त कर्म के विषय में तीसरा पक्ष ही अब बाकी नहीं रहता । इस- निये यदि गीता के अनुसार किसी भक्तिमान पुरुप की निष्ठा के विषय में निश्चय करना हो, तो यह निर्णय केवल इसी बात से नहीं किया जा सकता कि वह भक्ति भाव में लगा हुआ है परन्तु इस बात का विचार किया जाना चाहिये कि वह कर्म करता है या नहीं। भकि परमेश्वर-प्राप्ति का एक सुगम साधन है। और साधन के नाते से यदि भक्ति ही को 'योग' कहें (गी. १४. २६), तो भी वह अन्तिम 'निष्टा' नहीं हो सकती । भक्ति के द्वारा परमेश्वर का ज्ञान हो जाने पर जो मनुष्य कर्म करेगा उसे कर्म-निष्ट' और जो न करेगा उसे सांख्यनिष्ठ कहना चाहिये। पाँचवें अध्याय में भगवान् ने अपना यह अभिप्राय. स्पष्ट बतला दिया है, कि उक्त दोनों निष्ठाओं में कर्म करने की निष्ठा अधिक श्रेयस्कर है। परन्तु कर्म पर संन्यास- मार्गवालों का यह महत्वपूर्ण प्राक्षेप है, कि परमेश्वर का ज्ञान होने में कर्म से प्रतिबंध होता है और परमेश्वर के ज्ञान विना तो मोक्ष की प्राप्ति ही नहीं हो सकती; इसलिये कर्मों का त्याग ही करना चाहिये । पाँचवें अध्याय में सामान्यतः यह वतलाया गया है, कि उपर्युक्त आक्षेप असत्य है और संन्यास-मार्ग से जो मोव मिलता है, वही कर्मयोग-मार्ग से भी मिलता है (गी. ५.५)। परन्तु वहाँ इस सामान्य सिद्धान्त का कुछ भी खुलासा नहीं किया गया था । इसलिये भव भग वान् इस बचे हुए तया महत्वपूर्ण विषय का विस्तृत निरूपण कर रहे हैं, कि कर्म करते रहने ही से परमेश्वर के ज्ञान की प्राप्ति हो कर मोक्ष किस प्रकार मिलता है। इसी हेतु से सातवें अध्याय के आरम्म में अर्जुन से यह न कहकर, कि मैं तुझ भक्ति नामक एक स्वतंत्र तीसरी निष्ठा बतलाता हूँ, भगवान् यह कहते हैं कि-