४५६ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । के दूसरे अध्याय में कही गई है (गी. २. ५)। इसलिये, कर्मयोग का आच- रण करते हुए ही जिस रीति अथवा विधि से परमेश्वर का यह ज्ञान प्राप्त होता है, उसी विधि का अव भगवान् सातवें अध्याय से वर्णन करते हैं । 'कर्मयोग का आचरण करते हुए'-इस पद से यह भी सिद्ध होता है कि कर्मयोग के जारी रहते ही इस ज्ञान की प्राप्ति कर लेनी है। इसके लिये कर्मों को छोड़ नहीं बैठना है और इसीसे यह कहना भी निर्मूल हो जाता है, कि मक्ति और ज्ञान को कर्म- योग के बदले विकल्प मानकर इन्हीं दो स्वतंत्र मार्गों का वर्णन सातवें अध्याय से आगे किया गया है। गीता का कर्मयोग भागवतधर्म से ही लिया गया है। इस- लिये कर्मयोग में ज्ञान-प्राप्ति की विधि का जो वर्णन है वह भागवतधर्म अथवा नारायणीय धर्म में कही गई विधि का ही वर्णन है और इसी अभिप्राय से शान्तिपर्व के अन्त में वैशंपायन ने जनमेजय से कहा है, कि " भगवद्गीता में प्रवृत्ति प्रधान नारायणीय-धर्म और उसकी विधियों का वर्णन किया गया है।" वैशंपायन के कय- नानुसार इसीम संन्यास-मार्ग की विधियों का भी अन्तर्भाव होता है। क्योंकि, यद्यपि इन दोनों भागों में 'कर्म करना अथवा कर्मों को छोड़ना 'यही भेद है, तथापि दोनों को एक ही ज्ञान-विज्ञान की आवश्यकता है। इसलिये दोनों मार्गी में ज्ञान-प्राप्ति की विधियाँ एक ही सी होती है। परन्तु जब कि उपर्युक्त श्लोक में 'कर्मयोग का आचरण करते हुए'-ऐसे प्रत्यक्ष पद रखे गये हैं, तब स्पष्ट रीति से यही सिद्ध होता है कि गीता के सातवें और उसके अगले अध्यायों में ज्ञान-विज्ञान का निरूपण मुख्यतः कर्मयोग की ही पूर्ति के लिये कियागया है, उसकी व्यापकता के कारण उसमें संन्यास-मार्ग की भी विधियों का समावेश हो जाता है, कर्मयोग को छोड़कर केवल सांख्यनिष्ठा के समर्थन के लिये यह ज्ञान- विज्ञान नहीं बतलाया गया है । दूसरी बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि, सांख्यमार्गवाले यद्यपि ज्ञान को महत्व दिया करते हैं, तथापि वे कर्म को या भक्ति को कुछ भी महत्त्व नहीं देते; और गीता में तो भक्ति सुगम तथा प्रधान मानी गई है-इतना ही क्यों वरन् अध्यात्मज्ञान और भक्ति का वर्णन करते समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जगह जगह पर यही उपदेश दिया है, कि 'तू कर्म अर्थात युद्ध कर' (गी. ८.७, ११. ३३६ १६. २५, १८.६)। इसलिये यही सिद्धान्त करना पड़ता है, कि गीता के सातवें और अगले अध्यायों में ज्ञान-विज्ञान का जो निरूपण है, वह पिछले छ: अध्यायों में कहे गये कर्म- योग की पूर्ति और समर्थन के लिये ही बतलाया गया है। यहाँ केवल सांख्य. निष्ठा का या भक्ति का स्वतंत्र समर्थन विवक्षित नहीं है। ऐसा सिद्धान्त करने पर कर्म, भक्ति और ज्ञान गीता के तीन परस्पर-स्वतंत्र विभाग नहीं हो सकते। इतना ही नहीं परन्तु अब यह विदित हो जायगा कि यह मत भी (जिसे कुछ लोग प्रगट किया करते हैं) केवल काल्पनिक अतएव मिथ्या है। वे कहते हैं कि 'तत्त्वमसि' महावाक्य में तीन ही पद हैं और गीता के अध्याय भी अठारह हैं।
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