गीताध्याय-संगति। इसलिये हानिक भठारह' के हिसाब से गीता के छात्र अध्यापों के तीन समान विभाग करके पहले छः प्रध्यायों में 'त्या' पद का, दुसरं छः सध्यायों में 'तत्' पद का और तीसरं छः अध्यागों में प्रसि' पद का विवंचन किया गया है। इस मत को कालनिक या मिया कहने का कारण यहाँ है, कि ग्य तो यह एक-देशीय पर ही शेष नहा रहने पाता, गो यह कई कि गरी गीता में केवल प्रसाशान का ही प्रतिपादन किया गया है तथा 'तवमसि' महावाक्य के वियर के सिया गीता में और पुत्र अधिक नहा है। इस प्रकार जय मलूम हो गया फि भगवद्गीता में भक्ति और ज्ञान या विये- चन क्यों किया गया है. तब मानव से मत्र अध्याय के सनम तक ग्याझा सध्यायों की संगति सहमही ध्यान में या जाती है। पीछे, छठे प्रकरण में पतला दिया गया है कि जिस प.मं स्वरूप के ज्ञान से बुद्धि रस्वां और सम होता है, उस परमेघर-स्वरूप या विचार एका चार रावर टि में और फिर तंत्र क्षेत्रज्ञष्टि से करना पड़ता ऐ सौर उरात में यह सिद्धान्त किया जाता है कि जो नाव पिंड में है वही प्रशांव में है। इन्हीं विपी का प्राय गीता में यहांन ह । परन्तु जब इस प्रकार परमय के स्वल्पना विचा• करने लगते है तय देस पडता है कि परमेश्वर का स्वरूप की तीया (इन्द्रियगोचर) होना है और कभी अन्य। फिर से प्रश्नों का भी गार इस निरूप में काना पडता है. किदा दोनों स्वर में श्रेड कौनसा है, और इस प्रठ स्वरूप में कानउ स्वरूपले उत्तर ईता है ? इसी प्रकार पय इस बात का भी निर्णय करना पड़ता है, कि पागधर के पूनान से युति को गि, समर प्रातानिट कने के लिये परमेश्वर की जो पागा परनी पढ़ती या कक्षा-सव्यक की उपासना करना सच्चाई साया व्यक की ? और, इसी साध लाग इस विषय की भी उपाति यतलानी पड़ती है कि परमेश्वर गदि एक तो व्या-साष्ट में यह पानेता क्यों देश परती? इन सब विषयों को प्यवस्थित गति से चलाने के लिये यदि ग्यारह शध्याय लग गये, तो मुस नाश्चर्य नहीं । म यह नहीं करते, कि गीता में भक्ति और ज्ञान का बिन्कुल विवेचन ही नहीं है। हमारा फेवल इतना ही कहना है, कि कर्म, भक्ति गैर ज्ञान को तीन पिपप या नि स्थान, मान तुल्यग्रल की समझ कर, इन तीनों में गीता फ गाठा. सध्यागों के जो अलग अलग और घर वर घरावर हिस्से कर दिये जाते हैं, चैसा पारना उचित नहीं है किन्तु गीता में एकही निटा का सर्थात ज्ञानमूलक और भक्तिधान कांग्रेग का प्रतिपादन किया गया है और सांख्य-गिटा, ज्ञान-विज्ञान या भक्ति का जो निरूपणा भगवद्गीता में पाया जाता है, यह सिर्फ कर्मयोग-निडा की पूर्ति और समर्थन के लिये भानुपांगक ई-किसी स्वतंत्र विषय का प्रतिपादन करने के लिये नहीं। अब यह देखना है, कि हमारे इस सिद्धान्त के अनुसार कर्मयोग की पूर्ति और समर्थन के लिये बतलाये गये ज्ञान-विज्ञान का विभाग गीता के अध्यायों के क्रमानुसार किस प्रकार किया गया है। गी. र.५८ >
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