पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/४९७

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४५८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। सातवें अध्याय में बराबर-सृष्टि के प्रांत ब्रह्माण्ड के विचार को प्रारम्म करके भगवान् ने प्रथम अव्यक्त और भक्षर परग्रह के ज्ञान के विषय में यह कहा है, कि जो इस सारी सृष्टि को-पुरुप और प्रकृति को-मेरे ही पर और अपर स्वरूप जानते हैं, और जो इस माया के परे के अव्यक्त रूप को पहचान कर मुझे भजते हैं, उनकी बुद्धि सम हो जाती है तथा उन्हें मैं सद्गति देता है और फिर उन्होंने अपने स्वरूप का इस प्रकार वर्णन किया है कि सब देवता, सब प्राणी, सब यन, सव कर्म और सय अध्यात्म मैं ही हूँ, मेरे सिवा इस संसार में अन्य कुछ भी नहीं है। इसके बाद आठवें अध्याय के प्रारम्भ में अर्जुन ने अध्यात्म, प्राधियज्ञ, अधिदेव और अधिभूत शब्दों का अर्थ पूछा है। इन शब्दों का अर्थ वतला कर भगवान ने कहा है, कि इस प्रकार जिसने मेरा स्वरूप पहचान लिया, उसे मैं कभी नहीं भूलता । इसके बाद इन विषयों का संक्षेप में विवेचन , कि सारे जगत् में अविनाशी या अक्षर तत्व कौनसा है सब संसार का संहार कैसे और कब होता है जिस मनुष्य को परमेश्वर के स्वरूप का ज्ञान हो जाता है उसको कौनसी गति प्राप्त होती है और ज्ञान के विना केवल काम्यकर्म करनेवाले को कौनसी गति मिलती है। नवें अध्याय में भी यही विषय है। इसमें भगवान् ने उपदेश किया है, कि जो अव्यक्त परमेश्वर इस प्रकार चारों ओर ब्याह है उसके व्यक्त स्वरूप की भक्ति के द्वारा पहचान करके अनन्य भाव से उसकी शरण में जाना ही ब्रह्मप्राप्ति का प्रत्यक्षावगम्य और सुगम मार्ग अथवा राजमार्ग है, और इसीको राजविद्या या राजगुह्य कहते हैं । तथापि इन तीनों अध्यायों में बीच घोच में भगवान् कम-मार्ग का यह प्रधान तत्त्व बतलाना नहीं भूले हैं कि ज्ञानवान् या भकिमान् पुरुषों को कर्म करते ही रहना चाहिये । उदाहरणार्थ, पाठवें अध्याय में कहां है- " तस्मात्सर्वे कालेषु मामनुस्मर युदय च"- इसलिये सदा अपने मन में मेरा स्मरण रख और युद्ध कर (८.७); और नवें अध्याय में कहा है कि "सव कमों को मुझे अर्पण कर देने से उनके शुभाशुभ फलों से तू मुक्त हो जायगा" (६.२७, २८)। अपर भगवान् ने जो यह कहा है, कि सारा संसार मुझसे उत्पन्न हुआ है और वह मेरा ही रूप है। वही बात दसवें अध्याय में ऐसे अनेक उदाहरण देकर अर्जुन को भली भाँति समझा दी है कि संसार की प्रत्येक श्रेष्ठ वस्तु मेरी ही विभूति है।' अर्जुन के प्रार्थना करने पर ग्यारहवें अध्याय में भगवान् ने उसे अपना विश्वरूप प्रत्यक्ष दिखलाया है और उसकी दृष्टि के सम्मुख इस बात की सत्यता का अनुभव करा दिया है, कि मैं (परमेश्वर) ही सारे संसार में चारों और व्यास हूँ। परन्तु इस प्रकार विश्वरूप दिखना कर और अर्जुन के मन में यह विश्वास करा के कि सब कामों का करानेवाला मैं ही हूँ' भगवान् ने तुरन्त ही कहा है कि "सचा की तो मैं ही हूँ, तू निमित्त मात्र है, इसलिये निःशंक होकर युद्ध कर " (गी. ११. ३३) । यद्यपि इस प्रकार यह सिन्दू हो गया, कि संसार में एक ही परमेश्वर है तो भी. अनेक स्थानों