४६२ गीतारहत्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । यह अश्वत्य धृक्ष है और अन्त में भगवान् ने अर्जुन को यह उपदेश दिया है, कि घर और अदर दोनों के परे जो पुरुषोत्तम है उसे पहचान कर उसको भात करने से मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है तू भी ऐसा ही कर । सोलहवें अध्याय में कहा गया है, कि प्रकृति-भेद के कारण संसार में जैसा वैचित्य उत्पन्न होता है, उसी प्रकार मनुष्यों में भी दो भेद अर्थात् दैवी सम्पत्तिवाले और आसुरी सम्पचिवाले होते हैं इसके बाद उनके कर्मों का वर्णन किया गया है और यह बतलाया गया है कि उन्हें कौनसी गति प्रात होती है। अर्जुन के पूछने पर सत्रहवं अन्याय में इस बात का विवेचन किया गया है, कि त्रिगुणात्मक प्रकृति के गुणों की विषमता कारण उत्पन्न होनेवाला वैचित्र्य श्रद्धा, दान, यज्ञ, तप इत्यादि में भी देख पड़ता है। इसके बाद यह बतलाया गया है कि 'ॐ तत्सत् ' इस ब्रह्म-निर्देश के तत्' पद का अर्थ 'निकाम-बुद्धि से किया गया कर्म' और ' सत्' पद का अर्थ 'भच्छा, परन्तु काम्य-बुद्धि से किया गया कर्म होता है और इस अर्थ के अनुसार वह सामान्य ब्रह्म-निर्देश भी कर्म-योग-मार्ग के ही अनुकूल है । सारांशरूप से सातवें अध्याय से लेकर सत्रहवं अध्याय तक ग्यारह अध्यायों का तात्पर्य यही है, कि संसार में चारों ओर एकही परमेश्वर न्यात है-फिर तुम चाहे उसे विवरूप दर्शन के द्वारा पहचानो, चाहे ज्ञानचक्षु के द्वारा शरीर में चैत्रज्ञ भी वही है और घर-दृष्टि में अक्षर भी वही है। वही दृश्यसृष्टि में व्याप्त है और उसके बाहर अथवा परे भी है। यधीप वह एक है तो भी प्रकृति के गुण-भेद के कारण म्यक सृष्टि में नानात्व या वैचित्र्य देख पड़ता है और इस माया से अथवा प्रकृति के गुण-भेद के कारण ही दान, श्रद्धा, तप, यज्ञ, एति, ज्ञान इत्यादि तथा मनुष्यों में भी अनेक मैद हो जाते हैं। परन्तु इन सब भेदों में जो एकता है उसे पहचान कर उस एक और नित्यतत्व की उपासना के द्वारा-फिर वह उपासना चाहे व्यक्त की हो अथवा अव्यक्त की प्रत्येक मनुष्य अपनी बुद्धि को स्थिर और सम करे तथा उस निष्काम, साविक अथवा साम्यवादि से ही संसार में खधर्मानुसार प्राप्त सब व्यवहार केवल कतन्य समझ कर किया करे । इस ज्ञान-विज्ञान का प्रतिपादन, इस प्रन्य के अर्थाद गीतारहस्य के पिछले प्रकरणों में, विस्तृत रीति से किया गया है इसलिये हमने सातवें अध्याय से नगाकर सत्रहवें अध्याय तक का सारांश ही इस प्रकरण में दे दिया है-अधिक विस्तार नहीं किया। हमारा प्रस्तुत उद्देश केवल गीता के अध्यायों की संगति देखना ही है, अतएव इस काम के लिये जितना भाग आवश्यक है उतने का ही हमने यहाँ उल्लेख किया है। कर्मयोग-मार्ग में कर्म की अपेक्षा बुद्धि ही श्रेष्ठ है, इसलिये इस बुद्धि को शुद्ध और सम करने के लिये परमेश्वर की सर्वव्यापकता अर्थात सर्वभूतान्तर्गत आत्मक्य का जो ज्ञान-विज्ञान' भावश्यक होता है, उसका वर्णन प्रारम्भ करके अब तक इस बात का निरूपण किया गया, कि भिन्न भिन्न अधिकार के अनुसार म्यक यो अव्यक्त की उपासना के द्वारा जब यह ज्ञान हृदय में भिद जाता है, तब बुद्धि
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