पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५०२

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गीताध्याय-संगति। ४६३ को स्थिरता और समता प्राप्त हो जाती है, और कर्मों का त्याग न करने पर भी अन्त में मोक्ष की प्रापि हो जाती है। इसी के साथ क्षरावर का और क्षेत्र-क्षप्रज्ञ का भी विचार किया गया है। परन्तु भगवान् ने निश्चितरूप से कह दिया है, कि इस प्रकार बुद्धि के सम हो जाने पर भी फी का त्याग करने की अपेक्षा फलाशा को छोड़ देना और लोक-संग्रह के लिय मामरशान्त कर्म ही करते रहना अधिक श्रेयस्कर ई (गी. ५.२)। अतएव स्मृति-अन्यों में चाणत संन्यासाश्रम ' इस कर्मयोग में नहीं होता और इससे मन्वादि स्मृति-अन्यों का तथा इस कर्मयोग का पिरोध हो जाना सम्भय है। इसी शंका को मन में लाकर अठारहवें अध्याय के प्रारम्भ में अर्जुन ने संन्यास' और 'त्याग' का रहस्य पूछा है । भगवान् इस विषय में यह उत्तर देते हैं, कि संन्यास का मूल अर्थ छोड़ना है इसलिये, और कर्मयोग-मार्ग में ययपि कर्मों को नहीं छोड़ते तथापि फलाशा को छोड़ते हैं इस लिये, कर्मयोग तावतः सैन्यास ही होता है क्योंकि ययपि संन्यासी का भेष धारण करके भिक्षा न मांगी जाये, तथापि वैराग्य का और संन्यास का जो तस्व स्मृतियों में कहा गया है अर्थात् बुद्धि का निष्काम होना यह कर्मयोग में भी रहता है। परन्तु फलाशा के छूटने से स्पर्ग-प्राप्ति की भी पाशा नहीं रहती; इसलिये यहाँ एफ और शंका उपस्थित होती है, कि ऐसी दशा में यज्ञयागादिक श्रोत कर्म करने की क्या आवश्यकता है? इस पर भगवान ने अपना यह निश्चित मत पत- लाया है, कि उपर्युक्त कर्म चित्त-शुखिकारक हुआ करते हैं इसलिये उन्हें भी अन्य कमी के साप ही निष्काम पुति से करते रहना चाहिये और इस प्रकार लोक-संग्रह के लिये यज्ञया को हमेशा जारी रखना चाहिये । अर्जुन के प्रश्नों का इस प्रकार उत्तर देने पर प्रकृति-स्वभावानुरूप ज्ञान, कर्म, कत्ती, सुन्द्रि और सुख के जो सायिक तामस और राजस भेद हुमा करते हैं उनका निरूपण करके गुण-वैचित्र्य का विषय पूरा किया गया है । इसके बाद निश्चय किया गया है कि निष्काम-कर्म, निष्काम कर्ता, प्रासकिरहित पुद्धि, अनासक्ति से होनेवाला सुख, और अविभक्त विभक्तेषु ' इस नियम के अनुसार होनेवाला आत्मज्ञान ही साचिफ या श्रेष्ठ है। इसी ताव के अनुसार चातुर्वण्यं की भी उपपत्ति यतलाई गई है और कहागया है, कि चातुर्वण्र्य-धर्म से प्रात हुए फी को साविक अर्थात निष्काम-पुद्धि से केवल कर्तव्य मानकर करते रहने से ही मनुष्य इस संसार मैं कृतकृत्य हो जाता है और अन्त में उसे शान्ति तथा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है । अन्त में भगवान ने अर्जुन को भक्तिमार्ग का यह निश्चित उपदेश दिया है, कि कर्म तो प्रकृति का धर्म है इसलिये यदि तू उसे छोड़ना चाहे तो भी वह न छूटेगा; अतएव यह समझ कर कि सब करानेवाला और करनेवाला परमेश्वर ही है, तू उसकी शरण में जा और सय काम निष्काम-शुद्धि से करता जा; मैं ही यह परमेश्वर हूँ, मुझ पर विद्यास रख, मुझे भज, मैं तुझे सब पापों से मुक्त करूँगा । ऐसा उपदेश करके भगवान् ने गीता के प्रवृत्तिप्रधान धर्म का निरूपण पूरा किया है । सारांश यह है कि, इस