पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५१०

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उपसंहार। कर केवल यह कह दे, कि किसी काम को भमुक रीति से करो तो वह शुद्ध होगा और अन्य रीति से करो तो अशुद्ध होजायगा । उदाहरणार्थ-हिंसा मत करो, चोरी मत करो, सच पोलो, धमांचरण करो, इत्यादि यात इसी प्रकार की है। मनुस्मृति मादि स्मृतिग्रन्थों में तथा उपनिपदों में ये विधियाँ, आज्ञाएं अथवा प्राचार स्पष्ट रीति से बतलाये गये हैं। परन्तु मनुष्य ज्ञानवान् प्राणी है, इसलिये उसका समा- धान केवल ऐसी विधियों या आज्ञाओं से नहीं हो सकता, क्योंकि मनुष्य की यही स्वाभाविक इच्छा होती है, कि वह उन नियमों के यनाये जाने का कारण भी जान ले और इसीलिये यह विचार करके इन नियमों के नित्य तया मूल तत्व की खोज किया करता है-पस, यही दूसरी रीति है कि जिससे कर्म-अकर्म, धर्म- अधर्म, पुराय-पाप मादि का विचार किया जाता है। व्यावहारिक धर्म के अन्त को इस रीति से देख कर उसके मूलतत्चों को ढूंढ़ निकालना शास्त्र का काम है, तथा उस विषय के केवल नियमों को एकत्र करके यतलाना आचार-मह कहलाता है। कर्म- मार्ग का प्राचार-संग्रह स्मृतिमन्यों में है और उसके प्राचार के मूलतत्वों का शाखीय घ्रर्थात् तात्विक विवेचन भगवद्वीता में संपाद-पद्धति से या पौराणिक रीति से किया गया है। प्रतएव भगवद्गीता के प्रतिपाय विषय को केवल कर्मयोग न कहकर कर्मयोगशास फहना ही अधिक उचित तथा प्रशस्त होगा; और, यही योग- शाल शब्द भगवद्गीता के अध्याय-समाप्ति-सूचक संकप में भाया है। जिन पश्चिमी पंडितों ने पारलौकिक दृष्टि को त्याग दिया है, या जो लोग उसे गौण मानते हैं, वे गीता में प्रतिपादित फर्मयोगशास्त्र को ही मिटा भिन लौकिक नाम दिया करते हैं- जैसे सयपहारशाख, सदाचारशास्त्र, नीतिशाख, नीतिमीमांसा, नीतिशास्त्र के मूलतत्य, कर्तव्यशास्त्र, कार्य-कार्य-व्यवस्थिति, समागधारणशास्त्र इत्यादि । इन लोगों की नीतिमीमांसा की पद्धति भी लौकिक ही रहती है। इसी कारण से ऐसे पाश्चात्य पंडितों के अन्यों का जिन्होंने प्रवलोकन किया है, उनमें से बहुतों की यह समझ हो जाती है, कि संस्कृत-साहित्य में सदाचरण या नीति के मूलतत्वों की चर्चा किसीने नहीं की है। वे कहने लगते हैं कि हमारे यहाँ जो कुछ गइन तत्वज्ञान है, वह सिर्फ इमारा चेदान्त ही है। अच्छा; वर्तमान वेदान्त. अन्यों को देखो, तो मालूम होगा कि वे सांसारिक कमों के विषय में प्राय: उदा- सीन हैं। ऐसी अवस्था में कर्मयोगशास्त्र का अथवा नीति का विचार कहाँ मिलेगा? ' यह विचार व्याकरण अथवा न्याय के अन्यों में तो मिलनेवाला है ही नहीं और, स्मृति-प्रन्यों में धर्मशाख के संग्रह के सिवा और कुछ भी नहीं है। इसलिये हमारे प्राचीन शास्त्रकार, मोक्ष ही के गूढ़ विचारों में निमम हो जाने के कारण, सदाचरण के या नीतिधर्म के मूलतत्वों का विवेचन करना भूल गये!" परन्तु महाभारत और गीता को ध्यानपूर्वक पढ़ने से यह भ्रमपूर्ण समझ दूर हो जा सकती है। इतने पर भी कुछ लोग कहते हैं, कि महाभारत एक अत्यन्त विस्तीर्ण अंथ है, इसलिये उसको पढ़ कर पूर्णतया मनन करना बहुत कठिन है और गीता r