पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५०९

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पन्द्रहवाँ प्रकरण। उपसंहार। तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युदय च ।* गीता.८.७॥ चाहे आप गीता के अध्यायों की संगति या मेल देखिये, या उन अध्यायों 'के विषयों का मीमांसकों की पद्धति से पृथक् पृथक् विवेचन कीजिये किसी भी दृष्टि से विचार कीजिये, अन्त में गीता का सच्चा तात्पर्य यही मालूम होगा कि "ज्ञान-भक्तियुक्त कर्मयोग" ही गीता का सार है। अर्थात् साम्प्रदायिक टीकाकारों ने कर्मयोग को गौण ठहरा कर गीता के जो अनेक प्रकार के तात्पर्य बत- लाये हैं, वे यथार्थ नहीं है, किन्तु उपनिपदों में वर्णित अद्वैत वेदान्त का भक्ति के साथ मेल कर उसके द्वारा बड़े बड़े कमवीरों के चरित्रों का रहस्य-या उनके जीवन- क्रम की उपपत्ति बतलाना ही गीता का सच्चा तात्पर्य है। मीमांसकों के क्रय- नानुसार केवल श्रोतसात कर्मों को सदैव करते रहना भले ही शास्त्रोक्त हो तो भी ज्ञान-रहित केवल तांत्रिक क्रिया से बुद्धिमान् मनुष्य का समाधान नहीं होता; और, यदि उपनिषदों में वर्णित धर्म को देख तो वह केवल ज्ञानमय होने के कारण अल्पबुद्धिवाले मनुष्यों के लिये अत्यन्त कष्ट-साध्य है। इसके सिवा एक और बात है, कि उपनिषदों का संन्यासमार्ग लोकसंग्रहका बाधक भी है। इसलिय भगवान् ने ऐसे ज्ञान-मूलक, भक्ति प्रधान और निष्काम-का-विषयक धर्म का उपदेश गीता में किया है, कि जिसका पालन आमरणान्त किया. जावे, जिससे बुद्धि (ज्ञान), प्रेम (भक्ति) और कर्तव्य का ठीक ठीक मैल होजावे, मोक्ष की प्राहि में कुछ अन्तर न पड़ने पावे, और लोक व्यवहार भी सरलता से होता रहे। इसीम कर्म- भकर्म के शास्त्र का सब सार भरा हुआ है। अधिक क्या कह गीता के उपक्रम-उप- संहार से यह बात स्पष्टतया विदित हो जाती है, कि अर्जुन को इस धर्म का उप- देश करने में कम-प्रकर्म का विवेचन ही मूलकारण है । इस बात का विचार दो तरह से किया जाता है कि किस कर्म को धर्म्य, पुण्यप्रद, म्याग्य या श्रेयस्कर कहना चाहिये और किस कर्म को इसके विरुद्ध अर्थात् अधय, पापप्रद, अन्याय्य या गर्घ कहना चाहिये । पहली रीति यह है कि उपपत्ति, कारण या मर्म नवतला- ." इसलिये सदैव मेरा स्मरण कर और लड़ाई कर ।" लड़ाई कर-शब्द की योजना यहाँ पर प्रसंगानुसार की गई है। परन्तु उसका अर्थ केवल : लड़ाई कर' ही नहीं है यह अर्थ भी समझा जाना चाहिये कि • यथाधिकार कर्म कर। '