पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५१४

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उपसंहार। सदश नीतिमान और धार्मिक होने की कभी इच्छा और आशा नहीं रखनी चाहिये। मात्मस्वातंत्र्य के अनुसार अपनी बुद्धि को शुद्ध रखना उस प्राण के अधिकार में था; और, यदि उसके स्वल्पाचरण से इस बात में कुछ भी सन्देह नहीं रह जाता, कि तसको परोपकार बुद्धि युधिष्ठिर के ही समान शुद्ध थी, तो उस बामण की और उसके स्वल्प कृत्य की नैतिक योग्यता युधिष्टिर के और उसके बहुव्यय-साध्य यज्ञ के बराबर ही मानी जानी चाहिये । बल्कि यह भी कहा जा सकता है, कि कई दिनों तक क्षुधा से पीड़ित होने पर भी उस गरीब माहागा ने अन्नदान करके पतिथि के प्राण बचाने में जो स्वार्थ त्याग किया, उससे उसकी शुद्ध बुद्धि और भी अधिक व्यक्त होती है। यह तो सभी जानते हैं, कि धैर्य प्रादि गुणों के समान शुद्ध युद्धि की सच्ची परक्षिा संकट-काल में ही हुधा करती है। और, फान्ट ने भी अपने नीति-ग्रंप के प्रारम्भ में यही प्रतिपादन किया है. कि संकट के समय भी जिसकी शुद्ध बुद्धि (नैतिक साव) भ्रष्ट नहीं होती, यही सथा नीतिमान् है। उक्त नेवले का अभिप्राय भी यही था । परन्तु युधिष्ठिर की शुद्ध बुद्धि की परीक्षा कुछ राज्यारूढ़ होने पर संपत्ति-काल में किये गये एक अग्धमेध यज्ञ से ही होने को न थी, उसके पहले ही अर्थात् प्रापत्तिकाल की अनके पड़चनों के भीफों पर उसकी पूरी परीक्षा हो चुकी थी। इसीलिये महाभारतकार का यह सिद्वान्त ई कि धर्म- अधर्म के निर्णय के सूक्ष्म न्याय से भी युधिष्ठिर को धार्मिक ही फहना चाहिये कहना नहीं होगा, कि व नेवला निन्दफ ठहराया गया है। यही एक और बात ध्यान में देने योग्य है कि महाभारत में यह वर्णन है, कि प्रश्वमेध करनेवालों को जो गति मिलती है वही उस ब्राह्मण को भी मिली। इससे यही सिद्ध होता है, कि उस पास के कर्म की योग्यता युधिष्टिर के यज्ञ की अपेक्षा अधिक भले ही न हो, तथापि इसमें सन्देह नहीं कि महाभारत-कार उन दोनों की नैतिक और धार्मिक योग्यता एफ घरावर मानते हैं । व्यावहारिक कार्यों में भी देखने से मालूम हो सकता है, कि जय किसी धर्मकृत्य के लिये या लोकोपयोगी कार्य के लिये कोई लखपती मनुप्य हजार रुपये चंदा देता है, और कोई गरीव मनुष्य एक रुपया चंदा देता है, तब हम लोग उन दोनों की नैतिक योग्यता एक समान ही समझते हैं चन्दा' शब्द को देख कर यह दृष्टान्त कुछ लोगों को कदाचित् नया मालूम हो परन्तु यथार्थ में बात ऐसी नहीं है, क्योंकि उक्त नेवले की कथा का निरूपण करते समय ही धर्म-अधर्म के विवेचन में कहा गया है कि:- सहनशक्तिश्च शतं शतशक्तिर्दशापि च । दद्यादपश्च यः शक्तया सर्वे तुल्यफलाः स्मृताः ।। अर्थात् “ हजारवाले ने सौ, सौवाले ने दस, और किसी ने यथाशक्ति थोडासा पानी ही दिया, तो भी ये सब तुल्य फल हैं, अर्थात् इन सब की योग्यता एक बरा- बर है" (मभा. अश्व.६०,६७. ); और " पत्रं पुष्पं फलं तोयं " (गी. ६. २६). 1 1