पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५१५

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । इस गीता-वाश्य का तात्पर्य मी यही है । हमारे धर्म में ही क्या, ईसाई धर्म में भी इस तस्त्र का संग्रह है। ईसामसीह ने एक जगह कहा है जिसके पास अधिक है उससे अधिक पाने की आशा की जाती है" (ल्यूक १२.४८).। एक दिन जब ईसा मंदिर (गिरजाघर) गया था, तब वहाँ धर्मार्थ द्रव्य इकट्ठा करने का काम शुरू होने पर एक अत्यंत गरीब विधवा स्त्री ने अपने पास की कुल पूंजी- दो पैसे निकाल कर उस धर्मकार्य के लिय दे दी। यह देख कर इंसा के मुँह से यह द्वार निकल पड़ा, कि " इस स्त्री ने अन्य सब लोगों की अपेक्षा अधिक दान दिया है । इसका वर्णन वाइबल (माकं. १२.४३ और ४४) में है। इससे यह स्पष्ट है, कि यह बात ईसा को भी मान्य थी, कि कर्म की योग्यता की की बुद्धि से ही निश्चित की जानी चाहिय; और, यदि कता की बुद्धिशुद्ध हो तो बहुधा छोटे बोटे कर्मों की नैतिक योग्यता मी बड़े बड़े कमों की योग्यता के बराबर ही हो जाती है। इसके विपरीत, अर्थात् जब बुद्धि शुद्ध न हो तब, किसी कर्म की नैतिक योग्यता का विचार करने पर यह मालूम होगा, कि यद्यपि इत्या करना केवल एक ही कर्म है, तथापि अपनी जान बचाने के लिये दूसरे की हत्या करने में, और किसी राह चलत धनवान् मुसाफर को दृव्य के लिये मार ढालने में, नैतिक दृष्टि से बहुत अन्तर है। जर्मन कवि शिलर ने इसी भागय के एक प्रसंग का वर्णन अपने "विलियम टेल" नामक नाटक के अंत में किया है, और वहाँ याह्यतः एक ही से देख पड़नेवाल दो कृत्यों में वृद्धि की शुद्धता-अशुद्धता के कारण जो भेद दिख- नाया गया है, वही भेद स्वार्थत्याग और स्वार्थ के लिये की गई हत्या में भी है। इससे मालून होता है, कि कर्म छोटे बड़े हो या बराबर हों, उनमें नैतिक दृष्टि से जो भेद हो जाता है वह कत्ती के हेतु के कारण ही हुआ करता है। इस हेतु को ही उद्देश, वासना या बुद्धि कहते हैं । इसका कारण यह है कि ' बुद्धि ' शब्द का शास्त्रीय अर्थ यद्यपि व्यवसायात्मक इन्द्रिय है तो भी ज्ञान, वासना, उद्देश और हेतु सब बुद्धीन्द्रिय के व्यापार के ही फल हैं, अतएव इनके लिये भी बुद्धि शब्द ही का सामान्यतः प्रयोग किया जाता है और, पहले यह भी बतलाया जा चुका है, कि स्थितप्रज्ञ की साम्य-बुद्धि में व्यवसायात्मक बुद्धि की स्थिरता और वासना- त्मक बुद्धि की शुद्धता, दोनों का समावेश होता है। भगवान् ने अर्जुन से कुछ यह सोचने को नहीं कहा, कि युद्ध करने से कितने मनुष्यों का कितना कल्याण होगा और कितने लोगों की कितनी हानि होगी; बल्कि अर्जुन से भगवान् यही कहते हैं:- इस समय यह विचार गौण है कि तुम्हारे युद्ध करने से मोम मरेंगे कि द्रोण; मुख्य प्रश्न यही है कि तुम किस बुद्धि (हेनु या उद्देश) से युद्ध करने को तैयार हुए हो । यदि तुम्हारी बुद्धि त्यितप्रज्ञों के समान शुद्ध होगी और यदि तुम उस पवित्र वुदि से अपना कर्तब्य करने लगोगे, तो फिर चाहे भीन्न मरें या द्रोण, नुम्हे उसका पाप नहीं लगेगा। नुम कुछ इस फल की प्राशा से तो युद्ध कर ही नहीं रहे हो कि भीम मार जाय। जिस राज्य में तुम्हारा तन्म-सिद्ध हक है, उसका