पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५३८

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उपसंहार । श्रेष्ठ माने जाने का कारण क्या है? कुछ लोग कहते हैं कि यह परिवर्तन श्रीम- दाद्यशंकराचार्य के द्वारा हुआ। परन्तु इतिहास को देखने से इस उपपत्ति में सत्यता नहीं देख पड़ती। पहले प्रकरण में हम कह आये हैं कि श्रीशंकराचार्य के संप्रदाय के दो विभाग हैं-(१) माया-वादात्मक अद्वैत ज्ञान, और (२) कर्मसंन्यासधर्म । अव यद्यपि अद्वैत-ब्रह्मज्ञान के साथ साथ संन्यासधर्म का भी प्रति- पादन उपनिषदों में किया गया है, तो भी इन दोनों का कोई नित्य सम्बन्ध नहीं है। इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि अद्वैत वेदान्तमत को स्वीकार करने पर संन्यासमार्ग को भी अवश्य स्वीकार करना ही चाहिये । उदाहरणार्थ, याज्ञवल्क्य प्रकृति से अद्वैत वेदान्त की पूरी शिक्षा पाये हुए जनक आदिक स्वयं कर्मयोगी थे। यही क्यों, बल्कि उपनिपदों का अद्वैत-ब्रह्मज्ञान ही गीता का प्रतिपाद्य विषय होने पर भी, गीता में इसी ज्ञान के आधार से संन्यास के बदले कर्मयोग का ही समर्थन किया गया है । इसलिये पहले इस बात पर ध्यान देना चाहिये, कि शांकरसम्प्र- दाय पर संन्यासधर्म को उत्तेजन देने का जो श्राप किया जाता है, वह उस सम्प्रदाय के अद्वैत-ज्ञान को उपयुक्त न हो कर उसके अंतर्गत केवल संन्यासधर्म को ही उपयोगी हो सकता है। यद्यपि श्रीशंकराचार्य ने इस संन्यासमार्ग को नये सिरे से नहीं चलाया है, तथापि कलियुग में निपिद्ध' या वर्जित माने जाने के कारण उसमें जो गौणता आ गई थी, उसे उन्हों ने अवश्य दूर किया है। परन्तु यदि इसके भी पहले अन्य कारणों से लोगों में संन्यासमार्ग की चाह हुई न होती, तो इसमें सन्देह है कि आचार्य का संन्यास-प्रधान मत इतना अधिक फैलने पाता या नहीं। ईसा ने कहा है सही कि यदि कोई एक गाल में थप्पड़ मार दे तो दूसरे गाल को भी उसके सामने कर दो' (ल्यूक. ६. २९) । परन्तु यदि विचार किया जाय कि इस मत के अनुयायी यूरोप के ईसाई राष्ट्रों में कितने हैं, तो यही देख पड़ेगा कि किसी बात के प्रचलित होने के लिये केवल इतना ही बस नहीं है कि कोई धर्मोपदेशक उसे अच्छी कह दे, बल्कि ऐसा होने के लिये अर्थात लोगों के मन का झुकाव उधर होने के लिये उस उपदेश के पहले ही कुछ सवल कारण उत्पन्न हो जाया करते हैं, और तब फिर लोकाचार में धीरे धीरे परिवर्तन हो कर उसी के अनुसार धर्मनियमों में भी परिवर्तन होने लगता है। आचार धर्म का मूल है' इस स्मृतिवचन का तात्पर्य भी यही है। गत शताब्दी में शोपेनहर ने जर्मनी में संन्यासमार्ग का समर्थन किया था, परन्तु उसका बोया हुआ बीज वहाँ अब तक अच्छी तरह से जमने नहीं पाया और इस समय तो निशे के ही मतों की वहाँ धूम मची हुई है। हमारे यहाँ भी देखने से यही मालूम होगा, कि संन्यासमार्ग श्रीशंकराचार्य के पहले अर्थात् वैदिक काल में ही यद्यपि जारी हो गया था, तो भी वह उस समय कर्मयोग से आगे अपना कदम नहीं बढ़ा सका था।स्मृतिग्रंथों में अन्त में संन्यास लेने को कहा गया है सही; परन्तु उसमें भी पूर्वाश्रमों के कर्तव्य पालन का उपदेश दिया ही गया है। श्रीशंकराचार्य के मंथों का