गीतारहय अथवा कर्मयोगशास्त्र । कहते हैं। “स्वे स्वे कर्मण्यामरतः संसिदि लभते नरः" (गी. १८.४५) यही इस मार्ग का रहस्य है । महाभारत के वनपर्व में ब्राह्मण-न्याध-कथा में (वन. २०८) और शान्तिपर्व में तुलाधार-जाजली-संवाद में (शां. २६१) इसी धर्म का निरूपण किया गया है। और, मनुस्मृति (६.६६,६७) में भी यतिधर्म का निरूपण करने के अनन्तर इसी मार्ग को वेदसंन्यासिकों का कर्मयोग कह कर विहित तथा मोक्षदायक बतलाया है। वेदसंन्यासिक' पद से और वेद की संहिताओं तथा ब्राह्मण ग्रंथों में जो वर्णन हैं उनसे यही सिद्ध होता है, कि यह मार्ग हमारे देश में अनादिकाल से चला आ रहा है। यदि ऐसा न होता, तो यह देश इतना वैभवशाली कमी हुमा नहीं होता; क्योंकि यह बात प्रगट ही है कि किसी भी देश के वैभवपूर्ण होने के लिये वहाँ के कर्चा या वीर पुरुष कर्ममार्ग के ही अगुआ हुआ करते हैं। हमारे कर्मयोग का मुख्य तत्व यही है कि कोई का या वीर पुरुष भले ही हों, परन्तु उन्हें भी ब्रह्मज्ञान को न छोड़ कर उसके साथ ही साथ कर्तव्य को स्थिर रखना चाहिये और, यह पहले ही बतलाया जा चुका है, कि इसी बीजरूप तत्व का व्यवस्थित विवेचन कर के श्रीमगवान् ने इस मार्ग का अधिक दृढ़ीकरण और प्रसार किया था इसलिये इस प्राचीन मार्ग का ही आगे चल कर भागवतधर्म' नाम पड़ा होगा । विपरीत पन में उपनिषदों से तो यही न्यक होता है कि कभी न कभी कुछ ज्ञानी पुरुषों के मन का झुकाव पहले ही से स्वमावतः संन्यासमार्ग की ओर रहा करता था; अथवा कम से कम इतना अवश्य होता था कि पहले गृहस्थाश्रम में रह कर अन्त में संन्यास लेने की बुद्धि मन में जागृत हुआ करती थी-फिर चाहे वे लोग सचमुच संन्यास लेयानलें। इस. लिये यह भी नहीं कहा जा सकता कि संन्यासमार्ग नया है । परन्तु स्वमाव. वैचित्र्यादि कारणों से ये दोनों मार्ग यद्यपि हमारे यहाँ प्राचीन काल से ही प्रचलित ई तथापि इस बात की सत्यता में कोई शंका नहीं, कि चैदिक काल में मीमांसकों के कर्ममार्ग की ही लोगों में विशेप प्रबलता थी, और कौरव-पांडवों के समय में तो कर्मयोग ने संन्यासमार्ग को पीछे हटा दिया था । कारण यह है कि हमारे धर्मशास्त्रकारों ने साफ कह दिया है कि कौरव-पांडवों के काल के अनन्तर अर्थात् कलियुग में संन्यासधर्म निषिद्ध है। और जव कि धर्मशास्त्र " आचारप्रभवो धर्मः" (भभा. अनु. १४६. १३७, मनु. १. १०८) इस वचन के अनुसार प्रायः आचार ही का अनुवादक हुआ करता है, तव यह सहज ही सिद्ध होता है कि धर्मशास्त्रकारों के उक्त निषेध करने के पहले ही लोकाचार में संन्यासमार्ग गौण हो गया होगा। परन्तु इस प्रकार यदि कर्नयोगकी पहले प्रवलता थी और आखिर कलियुग में संन्यासधर्म को निषिद्ध मानने तक नौबत पहुँच चुकी थी, तो अब यही यही स्वाभाविक शंका होती है, कि इस तेजी से बढ़ते हुए ज्ञानयुक्त कर्म- योग के न्हास का तथा वर्तमान समय के भक्तिमार्ग में भी संन्यास-पव के ही पृष्ठ ३४२ की टिप्पणी में दिये गये वचनों को देखो। .
पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५३७
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