पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५४

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विपयप्रवेश। हुआ एक और वैष्णव संप्रदाय है जिसमें राधाकृष्ण की भक्ति कही गई है। डाक्टर भांडारकर ने निश्चय किया है कि ये प्राचार्य, रामानुज के बाद और मध्वाचार्य के पहले, करीब संवत् १२१६ के, हुए थे। जीव, जगत और ईश्वर के संबंध में निवार्का- चार्य का यह मत है कि यद्यपि ये तीनों मित्र हैं तथापि जीव और जगत् का व्यापार तथा अस्तित्व ईश्वर की इच्छा पर अवलम्बित है-स्वतंत्र नहीं है-और परमेश्वर में ही जीव और जगत् के सूक्ष्म तत्व रहते हैं। इस मत को सिद्ध करने के लिये निवार्काचार्य ने वेदान्तसूत्रों पर एक स्वतंत्र भाष्य लिखा है। इसी संप्र- दाय के केशव काश्मीरिभहाचार्य ने गीता पर ' तत्व-प्रकाशिका' नामक टीका लिखी है और उसमें यह बतलाया है कि गतिा का वास्तविक अर्थ इसी संप्रदाय के अनुकूल है। रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत पंच से इस संप्रदाय को अलग करने के लिये इसे 'द्वैताद्वैती ' संप्रदाय कह सकेंगे। यह बात स्पष्ट है कि ये सब भिन्न मित संप्रदाय शांकर संप्रदाय के भायावाद को स्वीकृत न करके ही पैदा हुए हैं, क्योंकि इनकी यह समझ थी कि आँख से दिखनेवाली वस्तु की सच्ची माने विना व्यक्त की उपासना अर्थात् भक्ति निराधार, या किसी अंश में मिथ्या भी, हो जाती है। परन्तु यह कोई आवश्यक बात नहीं है कि भक्ति की उपपत्ति के लिये अद्वैत और मायावाद को विलकुल छोड़ ही देना चाहिये । महाराष्ट्र के और अन्य साधु-सन्तों ने, मायावाद और अद्वैत का स्वीकार करके भी, भक्ति का समर्थन किया है और मालूम होता है कि यह भक्तिमार्ग श्रीशंकराचार्य के पहले ही से चला आ रहा है । इस पंथ में शांकर संप्रदाय के कुछ सिद्धान्त - अद्वैत, माया का मिथ्या होना, और कर्मत्याग की आवश्यकता-ग्राह्य और मान्य हैं। परन्तु इस पंथ का यह भी मत है, कि ब्रह्मात्मप्यरूप मोक्ष की प्राप्ति का सब से सुगम साधन भक्ति है। गीता में भगवान् ने पहले यही कारण बतलाया है कि "केशोऽधिकतरस्तेपाम- व्यक्तासक्तचेतलाम् " (गी. १२. ५) अर्थात् अव्यक्त ब्रह्म में चित्त लगाना अधिक केशमय है और फिर अर्जुन को यही उपदेश दिया है कि " भक्तास्तेऽतीव में प्रियाः" (गी. १२. २०) अर्थात् मेरे भक्त ही मुझ को अतिशय प्रिय हैं। अत. एव यह बात प्रगट है कि अद्वैतपर्यवसायी भक्तिमार्ग ही गीता का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। श्रीधर स्वामी ने भी गीता की अपनी टीका (गी. १८.७८)में गीता का ऐसा ही तात्पर्य निकाला है। मराठी भाषा में, इस संप्रदाय का गीतासंबंधी सर्वोत्तम ग्रंथ 'ज्ञानेश्वरी है। इसमें कहा गया है कि गीता के प्रथम छ अध्यायों में कर्म, बीच के छः अध्यायों में भक्ति और अन्तिम छः अध्यायों में ज्ञान का प्रतिपादन किया गया है और स्वयं ज्ञानेश्वर महाराज ने अपने ग्रंथ के अंत में कहा है कि मैंने गीता की यह टीका शंकराचार्य के भाप्यानुसार की है। परन्तु ज्ञानेश्वरी को इस कारण से एक विलकुल स्वतंत्र ग्रन्थ ही मानना चाहिये कि इसमें गाता का मूल अर्थ बहुत बढ़ा कर अनेक संरस दृष्टान्तों से समझाया गया है और इसमें विशेष करके भक्तिमार्ग का तथा कुछ अंश में निष्काम कर्म का श्रीशंकरा- गी. र.३