पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५५

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1 गांतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। चार्य से भी उत्तम, विवेचन किया गया है। ज्ञानेश्वर महाराज स्वयं योगी थे, इसलिये गीता के छठवें अध्याय के जिस लोक में पातंजल योगाभ्यास का विषय आया है उसकी उन्होंने विस्तृत टीका की है। उनका कहना है कि श्रीकृष्ण भगवान् ने इस अध्याय के अन्त(गी.६.४८) में अर्जुन को यह उपदेश करके कि "तस्माद्योगी भवार्जुन" इसलिये हे अर्जुन!तयोगी होनर्यात् योगाभ्यास में प्रवीण हो-अपना यह अभिप्राय प्रकट किया है कि सव मोनपयों में पातंजल योग ही सर्वोत्तम है और इसलिये ज्ञापन उसे पंघराज' कहा है। सारांश यह है कि भिन्न भिन्न सांप्र- दायिक भाष्यकारों और टीकाकारों ने गीता का सूर्य अपने अपने मतों के अनुकूल ही निश्चित कर लिया है। प्रत्येक संप्रदाय का यही कपन है कि गीता का प्रवृत्ति- विषयक कर्ममार्ग प्रधान (गौण) है अर्थान केवल ज्ञान का साधन इ. गीता में वही तत्वज्ञान पाया जाता है जो अपने संप्रदाय में स्वीकृत हुआ है। अपने संप्रदाय में मोन की दृष्टि से जो आचार अंतिम कर्तव्य माने गये हैं उन्हीं का वर्णन गीता में किया गया है,-अयात् मायावादात्मक अद्वैत और कर्मसंन्यास, माया-सत्यत्व. प्रतिपादक विशिष्टाईत और वासुदेव-भात, द्वैत और विष्णुमनि, शुद्धाद्वैत और भक्ति, शांकराद्वैत और भक्ति, पातंजल योग और भक्ति, केवल भक्ति, केवल योग या केवल ब्रह्मज्ञान ( अनेक प्रकार के निवृत्तिविपयक मोरधर्म)ही गीता के प्रधान तथा प्रतिपाद्य विपय हैं । हमारा ही नहीं, किन्तु प्रसिद्ध महाराष्ट्र कवि वामन पंडित का भी मत ऐसा ही है । गीता पर मापने यथार्थदीपिका नामक विस्तृत मराठी टीका लिखी है। उसके उपोव्यात में ये पहले लिखते हैं:- "हे भगवन् ! इस कलियुग में जिसके मत में जैसा अँचता है उसी प्रकार हर एक आदमी गीता का अर्थ लिख देता है।" और फिर शिकायत के तौर पर लिखते हैं:- " हे परमात्मन् ! सब लोगों ने किसी न किसी यहाने से गीता का मनमाना अर्थ किया है, परन्तु इन लोगों का किया हुमा अर्थ मुझ पसन्द नहीं। भगवन् ! मैं क्या करूं?" अनेक सांप्रदायिक टीकाकारों के मत की इस भिन्नता को देख कर कुछ लोग कहते हैं कि, जबकि ये लव मोन-संप्रदाय परस्पर विरोधी हैं चार जबकि इस बात का निश्चय नहीं किया जा सकता कि इनमें से कोई एक भी संप्रदाय गीता में प्रतिपादित किया गया है, तब तो यही मानना रचित है कि इन सब नौन-साधनों का-विशेषतः कर्म, भाक्त और ज्ञान का वर्णन स्वतंत्र रीति से,संक्षेपमै और पृथक पृथक करके भगवान् ने अर्जुन का समाधान किया है। कुछ लोग कहते हैं कि मोक्ष के अनेक उपायों का यह सव वर्णन पृथक पृथक् नहीं है, किन्तु इन लब की एकता ही गीता में सिद्ध की गई है । और, अंत में, कुछ

  • भिन्न भिन्न सामुदायिक आचार्यों के, गीता के माय और मुख्य मुख्य पंद्रह

टीका-यन्य, वम्बई के गुजराती प्रिंटिंग प्रेस के नालिक ने, हाल ही में एकत्र प्रकाशित त्येि हैं । भिन्न भिन्न टीकाकारों के अभिप्राय को एकदम नानने के लिये यह ग्रन्थ बहुत उपयोगी है। .