पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५४८

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परिशिष्ट-प्रकरण। गीता की वहिरंगपरीक्षा । अविदित्वा नापि दो देवतं योगमेव च । योऽध्यापयेनपेनाऽपि पापीयाजायते तु सः || 2 स्मति। पिएले प्रकरणों में इस बात का विस्तृत वर्णन किया गया है, कि जब भार 'तीय युर में होनेवाले कुलपय और जातिक्षय का प्रत्यक प पहने पाइन आँखों के सामने उपस्थित गुमा, तर अर्जुन अपने ज्ञानधर्म का त्याग करके संन्यास का स्वीकार करने के लिये तैयार हो गया या भीर उस समय उसको ठीक मार्ग पर लाने के लिये भगवान् श्रीकृष्ण ने येदान्तशाल के माधार पर यह प्रति. पादन किया, कि कर्मयोग ही अधिक श्रेयस्कर है, कर्मयोग में पुदि ही की प्रधा- नता है, इसीलिये प्रशाम्यस्यान से भपया परमेश्वरभक्ति से अपनी बुद्धि को साम्यावस्था में रख कर उस युधि के द्वारा स्पधर्मानुसार सब कर्म करते रहने से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, मोक्ष पाने के लिये इसके सिवा अन्य किसी बात की मापश्यकता नहीं है। और, इस प्रकार उपदेश फरफे, भगयान् ने अर्जुन को युद करने में प्रयुरा कर दिया । गीता का यही यथार्य तात्पर्य है। प्रय "गीता को भारत में सम्मिलित करने का कोई प्रयोजन नहीं" इत्यादि जो शंकाएँ इस भ्रम से उत्पन हुई हैं, कि गीता अन्य फेवल पेदान्तविषयक और निवृत्ति प्रधान है, उन का निवारण भी पाप ही पाप हो जाता है। क्योंकि, कपर्व में सत्यान्त का विवेचन करके जिस प्रकार श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युधिष्ठिर के पध से परावृत्त किया है, उसी प्रकार युद्ध में प्रवृत्त करने के लिये गीता का उपदेश भी आवश्यक था। और, यदि काव्य की दृष्टि से देखा जाय, तो भी यही सिद्ध होता है, कि महाभारत में अनेक स्थानों पर ऐसे ही जो अन्यान्य प्रसंग देख पड़ते हैं उन सब का मूज ." किसी मंत्र के पि, छंद, देवता और विनियोग को न जानते हुए जो (उक्त मंत्र की) शिक्षा देता है अथवा जप करता है वह पापी होता यह किसी न किसी स्मृति-ग्रंथ का वचन है; परन्तु मालूम नहीं कि किस ग्रंथ का है । हौं, उसका मूल आय- मायण (आय. १) श्रुति-ग्रंथ में पाया जाता है वह यह है:-यो एवा अविदिसायच्छन्दो- देवतमापणेन मंत्रेण याजयति वाऽध्यापयति वा स्थाणु वच्छति गौ वा प्रतिपयते । " अर्थात् ऋषि. छंद आदि किसी भी मंत्र के जो बाहिरंग है उनके विना जाने मंत्र नहीं करना चाहिये। पहीन्याय गीता सरीखे ग्रंप के लिए भी लगाया जा सकता है।