पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५४७

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५०८ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। सोकों का साधक यह श्रेयस्कर धर्म घट गया है तभी से इस देश की निकृष्टयावस्था का भाम्भ हुआ है । इसलिये ईश्वर से प्राशापूर्वक अन्तिम प्रार्थना यही है कि भक्ति का, ब्रह्मज्ञान का और कर्तृत्वशक्ति का यथोचित मेल कर देनेवाले इस तेजस्वी तथा सम गीता-धर्म के अनुसार परमेश्वर का यजन-पूजन करनेवाले सत्पुरुष इस देश में फिर भी उत्पन्न हॉ। और, अन्त में उदार पाठकों से निन्न मन्त्र-द्वारा (ऋ. १०. 18. ४) यह विनती करके गीता का रहस्य-विवेचन यहाँ समाप्त किया जाता है, कि इस अन्य में कहीं श्रम से कुछ न्यूनाधिकता हुई हो तो उसे सम-दृष्टि से सुधार मीजिये- समानी व माक्तिः समाना हृदयानि वः । समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।। यथा वः सुसहासति ।। यह मंत्र ऋग्वेद संहिता के अंत में आया है। यश-मंडप में एकत्रित लोगों को लक्ष्य करके यह कहा गया है । अर्थ:-" तुम्हारा अभिप्राय एक समान हो, तुन्दारे अंतःकरण एक समान हों और तुम्हार मन एक समान हो, जिससे तुम्हारा नुसास होगा, अर्थाद संघठति की दृढ़ता होगी। " अति अस्ति, यह वैदिक रूप है । 'यथा वः सुसहासति' इसकी द्विरुति ग्रंथ की समाप्ति दिखलाने के लिये की गई है। वत्सद्ब्रह्मार्पणमस्तु ।