भाग १ - गीता और महाभारत । जो नीतिधर्म की पति से अपरिहार्य देख पड़ते हैं, और यही यह कर्म-ग्रफर्म-विवेचन का स्वतंत्र शास्त्र उपपति-सहित पतलाया गया है । सारांश, पढ़नेवाले कुछ देर के लिये यदि यह परंपरागत कथा भूल जायें, कि श्रीकृपाजी ने युद्ध के प्रारंभ में ही अर्जुन को गीता सुनाई है, और यदि पे इसी युति से विचार करें कि महाभारत में, धर्म-अधर्म का निरूपण करने के लिये रचा गया यह एक प्रार्प-महाकाव्य है, तो भी यही देख पड़ेगा कि गीता के लिये महाभारत में जो स्थान नियुक किया गया है, वही गीता का महाप प्रगट करने के लिये काम-रष्टि से भी अत्यंत उचित है। जय हुन पातों की ठीक ठीक उपपत्ति मालूम हो गई, कि गीता का प्रतिपाद्य विषय क्या है और महाभारत में किस स्थान पर गीता यतलाई गई है। तब ऐसे प्रमों का पुछ भी मय देख नहीं पड़ता, कि " रणभूमि पर गीता का ज्ञान यतलाने की क्या मावश्यकता थी? फसाचित् किसी ने इस ग्रंप को महाभारत में पीछे से घुसेड़ दिया होगा! अपवा, भगवतीता में दस ही श्लोक मुग्य है या सो?" क्योंकि अन्य प्रकरणों से भी यही देख पढ़ता है, कि जय एक बार यह निश्चय हो गया कि धर्म- निरूपणा ' भारत ' का 'महाभारत' करने के लिये अमुक विषय महाभारत में अमुक कारण से अमुक स्थान पर रखा जाना चाहिये, तय महाभारतकार इस पात की परया नहीं करते कि उस विषय के निरूपण में कितना स्थान लग जायगा । तथापि गीता फी पहिरंगपरीक्षा के संबन्ध में जो और दलीलें पेश की जाती है उन पर भी भय प्रसंगानुसार विचार फरके उनके सत्यांश की जांच करना आवश्यक है, इस लिये उनमें से (१) गीता और महाभारत, (२) गीता और उपनिषद, (३) गीता और प्रलसूत्र, (४) भागवतधर्म का उदय और गीता, (५) यतमान गीता का काल, (६) गीता और बौदप, (७) गीता और ईसाइयों की याइयल- इन सात विषयों का विवेचन इस प्रकरण के सात भागों में क्रमानुसार किया गया स्मरण रहे कि सक्त यातों का विचार करते समय, फेवल काव्य फी एष्टि से भयात् व्यावहारिक और ऐतिहासिक दृष्टि से ही महाभारत, गीता, प्रलसूत्र उपनिषद् प्रादि ग्रंथों का विवेचन यहिरंगपरीक्षक किया करते हैं, इसलिये अब उक्त प्रश्नों का विचार हम भी उसी दृष्टि से फरेंगे। भाग १-गीता और महाभारत । उपर यह अनुमान किया गया है कि श्रीकृमाजी सरीखे महामानों के चरित्रों का नैतिक समर्थन करने के लिये महाभारत में कर्मयोग-प्रधान गीता, अचित कारणों से, उचित स्थान में रखी गई है और, गीता महाभारत का ही एक भाग होना चाहिये । वही अनुमान, इन दोनों ग्रंथों की रचना की तुलना करने से, अधिक पढ़ हो जाता है । परन्तु, तुलना करने के पहले, इन दोनों ग्रंथों के वर्तमान स्वरूप का कुछ विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। अपने गीता. भाष्य के भारंभ में श्रीमरछंकराचार्यजी ने स्पष्ट रीति से कह दिया है, कि गीता-
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