पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/५५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गीतारहस्य अथवा कर्मयोग-परिशिष्टा प्रत्येक श्लोक के प्रारम्भ में " यदात्रीपं " कहकर, जब पृतराष्ट्र नै वतनाया है कि दुर्योधन प्रकृति की जय-प्राप्ति के विषय में किस किस प्रकार मेरी निराशा होती गई, तब यह वर्णन है कि "योही सुना कि अर्जुन के मन में मोह उत्पन्न होने पर श्रीकृष्ण ने उसे विनरूप दिखलाया, सोही लय के विषय में मेरी पूरी निराशा हो गई।" आदिपर्व के इन तीन क्लेखों के बाद शांतिपर्व के अन्त में नारायणीय धर्म का वर्णन करते हुए, गीता का फिर भी बल्लेख करना पड़ा है । नारायणीय, सात्वत, ऐकान्तिक, और मागवत-ये चारों नाम समानार्थक है । नारायणीयो० पाख्यान (श.३३४-५१) में उस मति प्रधान प्रवृत्ति-मार्ग के उपदेश का वर्णन किया गया है, कि जिलका उपदेश नारायण ऋषि अथवा मगवान् ने श्वेतद्वीप में नारदजी ने जिया था । पिछले प्रकरणों में भागवतवर्म के इस तन्त्र का वर्णन किया जा चुका है, कि वासुदेव की पुकान्तनाव ले भात करके इस जगत् के सव व्यवहार स्वधनुसार करते रहने से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती भौर, यह भी बतला दिया गया है, कि इसी प्रकार भगवदगीता में मी संन्यास- मार्ग की अपेक्षा कर्मयोग ही श्रेष्ठतर माना गया है। इस नारायणीय धर्म की परंपरा का वर्णन करते समय वैशंपायन जनमेजय से कहते हैं, कि यह धर्म साचार नारायण से नारद को प्राप्त हुमा है और यही. धर्म " कथितो हरिगीतानु समास- विधिकल्पना" (मना. शां.३६१०) हरिलीता अथवा भगवद्गीता में बताया गया है। इसी प्रकार आगे चलकर ३४ अध्याय के श्लोक में यह बतलाया ‘गया है कि- समुपौडेवनीयु कुठपांडवयोम॒वे । अनुने विमनस्के च गीता मगवता स्वयम् ।। कौरव और पाण्डवों के युद्ध के समय विमनस्क अर्जुन को भगवान ने ऐकान्तिक भयवा नारायण-धर्म की इन विधियों का उपदेश किया था और, सब युगों में स्थित नारायण-धर्म की परंपरा बतला कर पुनश्च कहा है, कि इस धर्म का और यतियों के धर्म प्रर्याद संन्यास-धर्म का वर्णन 'हरिगीता' में किया गया है (ममा. शां. ३८.५३) आदि-पर्व और शांतिपूर्व में किये गये इन छ: उल्लेखों के अतिरिक अश्वमेधपर्व के भनुगीतापर्व में भी और एक बार मगवद्गीता का उल्लेख किया गया है।नव मारतीय युद्ध पूरा हो गया, युधिष्ठिर का राज्यामिक भी हो गया, और एक दिन श्रीकृष्ण तथा अर्जुन एकत्र कै हुए थे, तब श्रीकृष्ण ने कहा " यहाँ अव मेरे रहने की कोई आवश्यकता नहीं है। द्वारका को जाने की इच्छा है" इस पर मर्जुन ने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की, कि पहले युद्ध के आरम्म में आपने मुझेजो उपदेश किया था वह मैं भूल गया, इसलिये वह मुझे फिर से वतलाइये (अक्ष. १६) ! तब इस विनती के अनुसार, द्वारका को जाने के पहले, श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अनुगीता सुनाई। इस अनुगीता के आरम्म ही में भगवान् ने कहा है दुर्भाग्य-