भाग १-गीता और महाभारत । ५१३ श्लोक है, उनके बदले ६२० (मर्यात ४५ अधिक) श्लोक कहाँ से भा गये ! यदि यह कहते हैं कि गीता का स्तोत्र' या 'ध्यान' या इसी प्रकार के अन्य किसी प्रकरण का इसमें समावेश किया गया होगा, तो देखते हैं कि ययई में मुद्रित महाभारत की पोथी में वह प्रकरण नहीं ६ इतना ही नहीं, किन्तु इस पापीयाली गीता में भी सात सौ श्लोक ही हैं । अतएप, वर्तमान सात सौ श्लोकों की गीता ही को प्रमाण मानने के सिवा अन्य मार्ग नहीं है। यह हुई गीता की यात । पन्त, जय महाभारत की ओर देखते हैं, तो कहना पड़ता है कि यह विरोध कुछ भी नहीं है। स्वयं भारत ही में यह कहा है कि महाभारत-संहिता फी संख्या एक लाख है। परन्तु रावबहादुर चितामणिराव वैद्य ने महाभारत फे अपने टीका ग्रंप में स्पष्ट करके बतलाया है कि पर्तमान प्रकाशित पोधियों में उतने श्लोक नहीं मिलते; और, भिस भित्र पर्वो के अध्यायों की संख्या भी, भारत के प्रारंभ में दी गई अनुक्रमणिका के अनुसार, नहीं है। ऐसी अवस्था में, गीता और महाभारत की तुलना करने के लिये, इन प्रन्यों की किसी न किसी विशेष पोपी का माधार लिये बिना काम नहीं चल सकता; अतएव श्रीमाएंकराचार्य ने जिस सात सौ श्लोकॉपाली गीता को प्रमाण माना है उसी गीतों को, और फनकत्ते के वायू प्रतापचन्द्रराय द्वारा प्रकाशित महाभारत की पोथी को, प्रमाण मान कर हमने इन दोनों प्रन्यों की तुलना की है और हमारे इस प्रन्प में उद्धत महाभारत के श्लोकों का स्थान-निर्देश भी, कलकत्ते में मुद्रित उक्त महा- भारत के अनुसार ही किया गया है। इन श्लोकों को संबई की पापी में अपवा मद्रास के पाठक्रम के अनुसार प्रकाशित कृष्णाचार्य की प्रति में देखना हो, और यदि वे हमारे निर्दिष्ट किये हुए स्थानों पर न मिल, तो कुछ भागे पीछे ढूँढ़ने से ये मिल जायेंगे। सात सीलोकों की गीता और कलकत्ते के थायू प्रतापचन्द्रराय-द्वारा प्रकाशत महाभारत की तुलना करने से प्रथम यही देख पड़ता है, कि भगवद्गीता महाभारत ही का एक भाग है और, इस यात का उलेख स्वयं महाभारत में ही कई स्थानों में पाया जाता है। पहला उलेख आदिपर्व के प्रारंभ में दूसरे अध्याय में दी गई अनु. क्रमणिका में किया गया है। पर्व-वर्णन में पहले यह कहा है-"पूर्वोतं भगवद्गीता. पर्व भीष्मपधस्ततः" (मभा. पा. २.६६); और फिर अठारह पर्वो के अध्यायों और श्लोकों की संख्या बतलाते समय भीमपर्व के वर्णन में पुनश्च भगवद्गीता का स्पष्ट उल्लेख इस प्रकार किया गया है। कश्मलं यत्र पार्थस्य वासुदेवो महामतिः। मोहजं नाशयामास हेतुभिर्मोक्षदर्शिभिः॥ (ममा. आ. २. २४७), अर्थात् "जिसमें मोक्षगर्भ कारण बतलाकर वासुदेव ने अर्जुन के मन का मोहन कश्मल दूर कर दिया। इसी प्रकार आदिपर्व (१. १७६) के पहले अध्याय में, गी.र. ६५
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